Famous poetry Of Hindi Poets


Famous poetry Of Hindi Poets
Famous poetry Of Hindi Poets



 केदारनाथ अग्रवाल

ओस-बूंद कहती है लिख दूं

नव-गुलाब पर मन की बात।

कवि कहता है मैं भी लिख दूं

प्रिय शब्दों में मन की बात।

ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ

नव-गुलाब हो गया मलीन।

पर कवि ने लिख दिया ओस से

नव-गुलाब पर काव्य नवीन।

अमृता प्रीतम

मुझे वह समय याद है –

जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर

अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।

सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है

मैं इसकी कुछ नहीं लगती

पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।

तुम कहीं नहीं मिलते

हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास

न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।

अंधेरे का कोई पार नही

मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है

और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।

अज्ञेय

मैं मरूंगा सुखी

क्योंकि तुमने जो जीवन दिया था—

(पिता कहलाते हो तो जीवन के तत्व पांच

चाहे जैसे पुंज-बद्ध हुए हों, श्रेय तो तुम्हीं को होगा—)

उससे मैं निर्विकल्प खेला हूं—

खुले हाथों उसे मैंने वारा है—

धज्जियां उड़ाई हैं

तुम बड़े दाता हो :

तुम्हारी देन मैंने नहीं सूम-सी संजोई

पांच ही थे तत्व मेरी गूदड़ी में—

मैंने नहीं माना उन्हें लाल

चाहे यह जीवन का वरदान तुम नहीं देते बार-बार—

(अरे मानव की योनि! परम संयोग है!)

किंतु जब आए काल

लोलुप विवर-सा प्रलंब-कर, खुली पाए प्राणों की मंजूषा—

जावें पांचों प्राण शून्य में बिखर :

मैं भी दाता हूं

विसर्ग महाप्राण है

मैं मरूंगा सुखी

किंतु नहीं धो रहा मैं पाटियां आभार की

उनके समक्ष

दिया जिन्होंने बहुत कुछ

किंतु जो अपने को दाता नहीं मानते

नहीं जानते :

अमुखर नारियां, धूल-भरे शिशु, खग,

ओस-नमे फूल, गंध मिट्टी पर

पहले अषाढ़ के अयाने वारि-बिंदु की,

कोटरों से झांकती गिलहरी,

स्तब्ध, लय-बद्ध, भौंरा टंका-सा अधर में,

चांदनी से बसा हुआ कुहरा,

पीली धूप शारदीय प्रात: की,

बाजरे के खेतों को फलांगती डार हिरनों की बरसात में—

नत हूं मैं सबके समक्ष, बार-बार मैं विनीत स्वर

ऋण — स्वीकारी हूं — विनत हूं

मैं मरूंगा सुखी

मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं!

जगदीश व्योम

मां कबीर की साखी जैसी

तुलसी की चौपाई-सी

मां मीरा की पदावली-सी

मां है ललित रुबाई-सी

मां वेदों की मूल चेतना

मां गीता की वाणी-सी

मां त्रिपिटिक के सिद्ध सुत्त-सी

लोकोक्तर कल्याणी-सी

मां द्वारे की तुलसी जैसी

मां बरगद की छाया-सी

मां कविता की सहज वेदना

महाकाव्य की काया-सी

मां आषाढ़ की पहली वर्षा

सावन की पुरवाई-सी

मां बसन्त की सुरभि सरीखी

बगिया की अमराई-सी

मां यमुना की स्याम लहर-सी

रेवा की गहराई-सी

मां गंगा की निर्मल धारा

गोमुख की ऊँचाई-सी

मां ममता का मानसरोवर

हिमगिरि-सा विश्वास है

मां श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी

कावा है कैलाश है

मां धरती की हरी दूब-सी

मां केशर की क्यारी है

पूरी सृष्टि निछावर जिस पर

मां की छवि ही न्यारी है

मां धरती के धैर्य सरीखी

मां ममता की खान है

मां की उपमा केवल है

मां सचमुच भगवान है।

मंगलेश डबराल

यह एक तस्वीर है 

जिसमें थोड़ा-सा साहस झलकता है 

और ग़रीबी ढँकी हुई दिखाई देती है 

उजाले में खिंची इस तस्वीर के पीछे 

इसका अँधेरा छिपा हुआ है 

इस चेहरे की शांति 

बेचैनी का एक मुखौटा है 

करुणा और क्रूरता परस्पर घुले-मिले हैं 

थोड़ा-सा गर्व गहरी शर्म में डूबा है 

लड़ने की उम्र जबकि बिना लड़े बीत रही है 

इसमें किसी युद्ध से लौटने की यातना है 

और ये वे आँखें हैं 

जो बताती हैं कि प्रेम जिस पर सारी चीज़ें टिकी हैं 

कितना कम होता जा रहा है 

आत्ममुग्धता और मसख़री के बीच 

कई तस्वीरों की एक तस्वीर 

जिसे मैं बार-बार खिंचवाता हूँ 

एक बेहतर तस्वीर खिंचने की 

निरर्थक-सी उम्मीद में। 

कुँअर बेचैन

मिलना और बिछुड़ना दोनों

जीवन की मजबूरी है।

उतने ही हम पास रहेंगे,

जितनी हममें दूरी है।

शाखों से फूलों की बिछुड़न

फूलों से पंखुड़ियों की

आँखों से आँसू की बिछुड़न

होंठों से बाँसुरियों की

तट से नव लहरों की बिछुड़न

पनघट से गागरियों की

सागर से बादल की बिछुड़न

बादल से बीजुरियों की

जंगल जंगल भटकेगा ही

जिस मृग पर कस्तूरी है।

उतने ही हम पास रहेंगे,

जितनी हममें दूरी है।

सुबह हुए तो मिले रात-दिन

माना रोज बिछुड़ते हैं

धरती पर आते हैं पंछी

चाहे ऊँचा उड़ते हैं

सीधे सादे रस्ते भी तो

कहीं कहीं पर मुड़ते हैं

अगर हृदय में प्यार रहे तो

टूट टूटकर जुड़ते हैं

हमने देखा है बिछुड़ों को

मिलना बहुत ज़रूरी है।

उतने ही हम पास रहेंगे,

जितनी हममें दूरी है।

सुमित्रानंदन पंत

धिक रे मनुष्य, तुम स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल चुंबन

अंकित कर सकते नहीं प्रिया के अधरों पर?

मन में लज्जित, जन से शंकित, चुपके गोपन

तुम प्रेम प्रकट करते हो नारी से, कायर!

क्या गुह्य, क्षुद्र ही बना रहेगा, बुद्धिमान!

नर नारी का स्वाभाविक, स्वर्गिक आकर्षण?

क्या मिल न सकेंगे प्राणों से प्रेमार्त प्राण

ज्यों मिलते सुरभि समीर, कुसुम अलि, लहर किरण?

क्या क्षुधा तृषा औ’ स्वप्न जागरण सा सुन्दर

है नहीं काम भी नैसर्गिक, जीवन द्योतक?

बन जाता अमृत न देह-गरल छू प्रेम-अधर?

उज्वल करता न प्रणय सुवर्ण, तन का पावक?

पशु पक्षी से फिर सीखो प्रणय कला, मानव !

जो आदि जीव, जीवन संस्कारों से प्रेरित,

खग युग्म गान गा करते मधुर प्रणय अनुभव,

मृग मिथुन शृंग से अंगों को कर मृदु मर्दित !

मत कहो मांस की दुर्बलता, हे जीव प्रवर !

है पुण्य तीर्थ नर नारी जन का हृदय मिलन,

आनंदित होओ, गर्वित, यह जीवन का वर,

गौरव दो द्वन्द्व प्रणय को, पृथ्वी हो पावन !

ओम निश्चल

तरफ जुगनुओं का डेरा है

रोशनी  तो  है पर  अंधेरा  है।

डूबती सांस है यहां हर पल

हर जगह मौत का बसेरा है।

मछलियों तुम नहीं सलामत हो

जाल   डाले   हुए   मछेरा है ।

लोग ज्यों जी रहे हैं दहशत में

कैसा आवागमन का फेरा है !

एक भी छींक अपशकुन है अब

मौत ने  आदमी को   टेरा  है।

किसलिए इतनी हवस है फिर भी

व्यर्थ  यह “तेरा और  मेरा” है।

है अभी  अंधकार  माना, पर

सृष्टि  की  कोख में  सवेरा  है।

हर्षवर्धन प्रकाश

हो तिमिर कितना भी गहरा

हो रोशनी पर लाख पहरा

सूर्य को उगना पड़ेगा

फूल को खिलना पड़ेगा।

हो समय कितना भी भारी

हमने ना उम्मीद हारी

रंज को रुकना पड़ेगा

दर्द को झुकना पड़ेगा।

सब थके हैं, सब अकेले

लेकिन फिर आएंगे मेले

साथ ही लड़ना पड़ेगा

साथ ही चलना पड़ेगा।

Anand Barun

संशय का बादल 

छँट ही गया समझो 

/फिर हवाऐं चाँद को छू 

/सुकून की फाहों सा /

पेशानी पर ऊतर आएगी

 /नींद नर्म लिहाफों में /

सुहानी भोर फिर जगाऐगी 

/सपनों का सूरज 

/सत्य की प्राची से /

जगमग खिलखिलाएगी /

दोपहरी की तपिश /

जब ढ़लने को होगी /

पक्षियों के मडराते झुंड 

/जब नीड़ का रुख करेगी 

/किसी गलाबी शाम के /

लुकछिप धुंधलके में /

फुरसत से एक दिन /

मिलेंगे मेरे दोस्त /

फासले आस ना डिगाएगी (स्वरचित) 

मंगलेश डबराल

मैं जब भी यथार्थ का पीछा करता हूँ

देखता हूँ वह भी मेरा पीछा कर रहा है मुझसे तेज़ भाग रहा है

घर हो या बाज़ार हर जगह उसके दांत चमकते हुए दिखते हैं

अंधेरे में रोशनी में

घबराया हुआ मैं नींद में जाता हूँ तो वह वहां मौजूद होता है

एक स्वप्न से निकलकर बाहर आता हूँ

तो वह वहां भी पहले से घात लगाये हुए रहता है

यथार्थ इन दिनों इतना चौंधियाता हुआ है

कि उससे आंखें मिलाना मुश्किल है

मैं उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ता हूँ

तो वह हिंसक जानवर की तरह हमला करके निकल जाता है

सिर्फ़ कहीं-कहीं उसके निशान दिखाई देते हैं

किसी सड़क पर जंगल में पेड़ के नीचे

एक झोपड़ी के भीतर एक उजड़ा हुआ चूल्हा एक ढही हुई छत

छोड़कर चले गये लोगों का एक सूना घर

एक मरा हुआ मनुष्य इस समय

जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज़्यादा कह रहा है

उसके शरीर से बहता हुआ रक्त

शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज़्यादा आवाज़ कर रहा है

एक तेज़ हवा चल रही है

और विचारों स्वप्नों स्मृतियों को फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ा रही है

एक अंधेरी सी काली सी चीज़

हिंसक पशुओं से भरी हुई एक रात चारों ओर इकट्ठा हो रही है

एक लुटेरा एक हत्यारा एक दलाल

आसमानों पहाड़ों मैदानों को लांघता हुआ आ रहा है

उसके हाथ धरती के मर्म को दबोचने के लिए बढ़ रहे हैं

एक आदिवासी को उसके जंगल से खदेड़ने का ख़ाका बन चुका है

विस्थापितों की एक भीड़

अपनी बचीखुची गृहस्थी को पोटलियों में बांध रही है

उसे किसी अज्ञात भविष्य की ओर ढकेलने की योजना तैयार है

ऊपर आसमान में एक विकराल हवाई जहाज़ बम बरसाने के लिए तैयार हैं

नीचे घाटी में एक आत्मघाती दस्ता

अपने सुंदर नौजवान शरीरों पर बम और मिसालें बांधे हुए है

दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष अंगरक्षक सुरक्षागार्ड सैनिक अर्धसैनिक बल

गोलियों बंदूकों रॉकेटों से लैस हो रहे हैं

यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है

उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन।

हरिवंशराय बच्चन

बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

आज गगन की सूनी छाती

भावों से भर आई,

चपला के पावों की आहट

आज पवन ने पाई,

डोल रहें हैं बोल न जिनके

मुख में विधि ने डाले

बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

बिजली की अलकों ने अंबर

के कंधों को घेरा,

मन बरबस यह पूछ उठा है

कौन, कहाँ पर मेरा?

आज धरणि के आँसू सावन

के मोती बन बहुरे,

घन छाए, मन के मीत की बेला आई।

बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

शैल चतुर्वेदी की हास्य कविता

देश के लिये नेता

नेता के लिये अक़्ल

अक़्ल के लिये घी

घी के लिये मक्खन

मक्खन के लिये दूध

दूध के लिये गाय

गाय के लिये नोट

नोट के लिये वोट

वोट के लिये वोटर

वोटर के लिये मोटर

मोटर के लिये दौरा

दौरे के लिये भत्ता

भत्ते के लिये भाषण

भाषण के लिये जनता

जनता के लिये वादे

वादे के लिये माँग

माँग के लिये सिन्दूर

सिन्दूर के लिये नारी

नारी के लिये परिवार

परिवार के लिये बंगला

बंगले के लिये नगर

नगर के लिये प्रांत

प्रांत के लिये देश

देश के लिये नेता

अशोक वाजपेयी

मैं रुक तो जाता 

अगर मेरे पास लौटने के लिए 

जेब में उम्मीद का एक भी सिक्का होता : 

खोजे नहीं मिला एक भी 

उस प्याले में जिसमें जब-तब की जमा रेज़गारी 

मैं डाल दिया करता था। 

मुझे पता है कि बिना बताए 

एक दिन उम्मीद ऐसे चली जाती है 

जैसे कभी थी ही नहीं 

पता तो था कि अब पास नहीं है उम्मीद 

लेकिन यह भरोसा नहीं था कि 

बिना उसके मैं वापस जा सकता हूँ— 

उस चकाचौंध से 

जिसमें तुम मुझे बुला रहे थे। 

नहीं, मैं समय या आयु से बचना नहीं चाहता, 

न ही आकांक्षा की उस दुनिया से 

जिसमें बेशर्मी से बने रहना 

लगता है कि अब हरेक की नियति है : 

मैं अपनी हार से बचना चाहता हूँ 

ताकि एक जुंबिश बनी रहे इनकार की 

उस धकापेल में भी 

और मैं वापस घर आकर 

अगले दिन बिना अपमानित या लज्जित हुए 

जाग सकूँ 

और देख सकूँ कि सफ़ेद होते बालों 

और बढ़ती हुई झुर्रियों के बावजूद, 

बिना घमंड या चतुराई के 

सड़क के उस पार जा सकता हूँ 

और कृतज्ञ हो सकता हूँ उस धूप का 

जिसने कड़े वक़्त में भी साथ नहीं छोड़ा है 

शब्दों की ही तरह। 

मैं रुक तो जाता 

मगर मेरे पास लौटने की उम्मीद नहीं थी।

कुमार अम्बुज की कविता

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार 

यह तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो 

और माथे पर जो बल आते हैं 

हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार 

लेकिन इसी वजह से कई लोग चले जाएँगे तुमसे दूर 

सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जल्दबाज़ी 

या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत 

कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी 

फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल 

किसी को आँख में आँख डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार 

चलते-चलते रुक कर इमली का पेड़ देखना 

एक बार फिर तुम्हारे ख़िलाफ़ जाएगा 

फिर भी यदि तुमसे बहुत से लोग एक साथ कहें 

कि वे सब तुमको करते हैं प्यार तो रुको और सोचो 

यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में है 

यह होगा ही कि तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जिओगे 

और अपने प्यार करने वालों को 

अजीब मुश्किल में डालते चले जाओगे 

जो उन्नीस सौ चौहत्तर में, उन्नीस सौ नवासी में 

और दो हज़ार पाँच में करते थे तुमसे प्यार 

तुम्हारी जड़ों में देते थे पानी 

और कुछ जगह छोड़ कर खड़े होते थे कि तुम्हें मिले प्रकाश 

वे भी एक दिन इसलिए जा सकते हैं दूर कि अब 

तुम्हारे जीवन की परछाईं उनकी जगह तक पहुँचती है 

तुम्हारे पक्ष में सिर्फ़ यही बात हो सकती है 

कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वज़ह से भी 

करने लगते हैं तुम्हें प्यार 

जीवन में उस रंगीन चिड़िया की तरफ़ देखो 

जो किसी का मन मोह लेती है 

और ठीक उसी वक़्त एक दूसरा उसे देखता है 

शिकार की तरह। 

हरिवंश राय बच्चन

कोई पार नदी के गाता

भंग निशा की नीरवता कर,

इस देहाती गाने का स्वर,

ककड़ी के खेतों से उठकर,

आता जमुना पर लहराता

कोई पार नदी के गाता।

होंगे भाई-बंधु निकट ही,

कभी सोचते होंगे यह भी,

इस तट पर भी बैठा कोई

उसकी तानों से सुख पाता

कोई पार नदी के गाता।

आज न जाने क्यों होता मन

सुनकर यह एकाकी गायन,

सदा इसे मैं सुनता रहता,

सदा इसे यह गाता जाता

कोई पार नदी के गाता। 

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