Unseen Poetry of Ravikant Anmol
ये बादल हैं कि गेसू कौन जाने
Ravi Kant Anmol |
ये बादल हैं कि गेसू कौन जाने
तू शबनम है कि आंसू कौन जाने
यहां पर कौन है तू कौन जाने
हवा कुछ सरफिरी सी लग रही है
कहां जाएगी खुश्बू कौन जाने
तू किन लफ़्ज़ों में क्या समझा रहा है
तेरी बातों का मौज़ू कौन जाने
हवा में बे-तरह लहरा रहे हैं
ये बादल हैं कि गेसू कौन जाने
छुपी हर शे’र में हैं कितनी हैं बातें
न जाने कितने पहलू कौन जाने
रवि कांत अनमोल
‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें / रविकांत अनमोल
‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें
जो हो सके तो अपने भी हक़ में दुआ करें
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हम भी हैं
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
अपने हज़ार चेहरे हैं, सारे हैं दिलनशीं
किससे वफ़ा निभाएं तो किससे जफ़ा करें
नंबर मिलाया फ़ोन पे दीदार कर लिया
मिलना हुआ है सह्ल तो अक्सर मिला करें
तेरे सिवा तो अपना कोई हमज़ुबां नहीं
तेरे सिवा करें भी तो किस से ग़िला करें
दी है क़सम उदास न रहने की तो बता
जब तू न हो तो कैसे ये हम मोजिज़ा करें
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हल्की सी धुंध में
शरीर को छूती
पानी की नन्ही बूँदें
अहसास दिलाती हैं मुझे
बाद्लों से घिरे होने का
बादल चाहे न भी दिखते हों
जैसे जीवन की
छोटी-छोटी मुश्किलों में
अनजान लोगों से
अनजान जगहों पर
अनजान कारणोंं से
बिना माँगे ही मिलने वाली
छोटी सी मदद
या अचानक
बिना कारण ही
मिल जाने वाली
छोटी सी खुशी
अहसास दिलाती है
कि तुम हो
यहीं कहीं आस पास
चाहे मेरी ये नज़र
तुम्हें देख न भी पाए
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ग़ज़ल : ये सरहद कितनी माँओं के दुलारे छीन लेती है
कई लख्ते ज़िगर, आँखों के तारे छीन लेती है
ये सरहद कितनी माँओं के दुलारे छीन लेती है
अजीज़ो, मज़हबी वहशत से जितना बच सको बचना
ये वो डाइन है जो बच्चे हमारे छीन लेती है
सियासत खेल समझी है जिसे, वो जंग ऐ लोगो
फ़लक के सबसे चमकीले सितारे छीन लेती है
जो नफ़रत अपनी तक़रीरों वो भरते हैं सीनों में
बुज़ुर्ग़ों से बुढापे के सहारे छीन लेती है
खुदा को लाओ मत इसमें ये लालच की लड़ाई है
ज़मीनों आसमां के सब सहारे छीन लेती है
बड़ी बेदर्द है तक़दीर बेदर्दी पे आए तो
ये मासूमों से खुशियों के पिटारे छीन लेती है
न उतरो इस में तुम अनमोल इक पागल नदी है ये
सफ़ीने तोड़ देती है किनारे छीन लेती है
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दो-ग़ज़ला
1
इक समंदर हूँ मैं अपने आप में सिमटा हुआ
वो समझते हैं मुझे दरिया कोई बहता हुआ
हाँ कि मुझमें ऐब भी हैं हाँ कि मैं इंसान हूँ
हाँ कि मैंने ग़लतियाँ कीं, हाँ मुझे धोका हुआ
आइने में देखता हूँ जब भी अपने आप को
हर दफ़ा लगता हूँ मैं पहले से कुछ सुलझा हुआ
ज़िंदगी की राह पर दुश्वारियाँ जब भी बढ़ीं
कोई मेरे हमकदम था जब भी मैं तन्हा हुआ
ज़िंदग़ी में क़हक़हे भी थे अगर कुछ अश्क थे
जैसी गुज़री खूब ग़ुज़री जो हुआ अच्छा हुआ
जब भी मुड़ के देखता हूँ अपने माज़ी को कभी
तू ही तू दिखता है मुझको नूर सा बिखरा हुआ
मैं इसी धोके में था सब कर रहा हूँ मैं मगर
जैसा जैसा उसने चाहा था सभी वैसा हुआ
हमने ख़ुद को ढूढने में उम्र सारी झोंक दी
छोड़िए अनमोल जी ये भी कोई किस्सा हुआ
2
हर तरफ़ दुनिया में है इक ख़ौफ़ सा पसरा हुआ
आदमी इस दौर में है बेतरह सहमा हुआ
मौत का सामान करने में जुटा है हर कोई
अब मुझे दिखता नहीं कोई यहां बचता हुआ
दिल महब्बत से भरा इस नफ़रतों के दौर में
जैसे काली रात में कोई दिया जलता हुआ
मोजिज़ा ही है ये अपने दौर का ऐ दोस्तो
घर बड़े होते गए हैं और दिल छोटा हुआ
कोई समझाएगा इनको तो समझ जाएंगे लोग
छोड़िए जी ये जहाँ अपना भी है देखा हुआ
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ज़िंदगी टूटा हुआ इक खाब है
ज़िंदगी टूटा हुआ इक खाब है
या किसी किस्से का कोई बाब है
हां कभी शादाब था ये दिल मगर
अब कहां इस में वो आबो-ताब है
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अब तो आती नहीं इधर खुश्बू
उड़ गई ले हवा के पर खुश्बू
क्या पता जाए किस नगर खुश्बू
फूल की पंखुड़ी पे सोई थी
तितलियों से गई है डर खुश्बू
फूल झूमे बहार की धुन पर
पल में हर सू गई बिखर खुश्बू
असमानों से आग बरसी है
है पसीने से तर-ब-तर खुश्बू
अब तो बनती है कारखानों में
थी बहारों की हमसफ़र खुश्बू
बाग में जब भी आम पकते थे
आया करती थी मेरे घर खुश्बू
आप इक बार मुस्कुरा दीजे
जाएगी हर तरफ़ बिखर खुश्बू
तुम जहां भी जिधर भी जाते हो
फैलती है उधर उधर खुश्बू
बन गए अब मकान खेतों में
अब तो आती नहीं इधर खुश्बू
रवि कांत अनमोल
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सच के बारे में झूठ
सच सीधा-सादा कहां होता है
सच की कई परतें होती है
सच के कई रूप होते हैं
सच के कई मुखोटे होते हैं
सच की कई परिभाषाएं होती हैं
सच के कई अर्थ होते हैं
और इन सभी रूपों में
मुखोटों में
परिभाषाओं में
अर्थों में
इतने विरोधाभास होते हैं कि
सच के सीधा सादा होने की
सभावना ही समाप्त हो जाती है।
और जो लोग
सच को सीधा-सादा,साफ़-सुथरा
और स्पष्ट बताते हैं
वास्तव में
सच के बारे में झूठ बोल रहे होते हैं
रवि कांत अनमोल
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ग़ज़ल: हम अपने दिल को भी समझा न पाए
ग़ज़ल संग्रह टहलते-टहलते में से एक ग़ज़ल
जो शिकवे थे लबों तक आ न पाए
हम अपने दिल को भी समझा न पाए
मिला था प्यार भी लेकिन म़कद्दर
उसे जब वक्त था अपना न पाए
करें क्या ज़िक्र अब उस दास्तां का
जिसे अंजाम तक पहुंचा न पाए
तुम्हारी रहनुमाई थी कि मुझको
वो उलझे रास्ते भटका न पाए
मुक़द्दर पर चला है ज़ोर किसका
कि मंज़िल सामने थी, जा न पाए
जो करना है अभी अनमोल कर लो
कि अगली सांस शायद आ न पाए
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ग़ज़ल : ये हसीं पल कहाँ से लाओगे
ग़ज़ल संग्रह टहलते-टहलते में से एक ग़ज़ल
ये हसीं पल कहाँ से लाओगे
वक़्त ये कल कहाँ से लाओगे
भीग लो मस्तियों की बारिश में
फिर ये बादल कहाँ से लाओगे
ज़िंदग़ी धूप बन के चमकेगी
माँ का आंचल कहाँ से लाओगे
वक़्त के हाथ बेचकर सांसें
ज़िंदगी कल कहाँ से लाओगे
जब जवानी निकल गई प्यारे
दिल ये पागल कहाँ से लाओगे
ज़िंदगी बन गई सवाल अगर
इसका तुम हल कहाँ से लाओगे
नर्म ये घास जिस पे चलते हो
कल ये मख़मल कहाँ से लाओगे
ये मधुर गीत बहते पानी का
कल ये क़लक़ल कहाँ से लाओगे
ये शिकारे ये दिलनशीं मंज़र
और यह डल कहाँ से लाओगे
अट गई जब ज़मीन महलों से
दाल चावल कहाँ से लाओगे
बाग़ जब कट गए तो ऐ अनमोल
ये मधुर फल कहाँ से लाओगे
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गज़ल- आइए ज़िन्दगी की बात करें
ग़ज़ल संग्रह टहलते-टहलते में से एक ग़ज़ल
प्यार की दोस्ती की बात करें
आइए ज़िन्दगी की बात करें
कोई हासिल नहीं है जब इसका
किस लिए दुश्मनी की बात करें
ज़िक्र हो तेरी अक़्लो-दानिश का
मेरी दीवानगी की बात करें
आप नज़दीक जब नहीं तो फिर
किस से हम अपने जी की बात करें
बीती बातों में कुछ नहीं रक्खा
बैठिए हम अभी की बात करें
बात कुछ आपकी हो मेरी हो
और हम क्यूं किसी की बात करें
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ग़ज़ल-वो प्यार ख़ुद को गंवा कर तलाश करना है
ग़ज़ल संग्रह टहलते-टहलते में से एक ग़ज़ल
तुम्हीं को रूह के अंदर तलाश करना है
तुम्हीं को जिस्म के बाहर तलाश करना है
जो प्यार ख़ुद को भुलाने की वज्ह बन जाए
वो प्यार ख़ुद को गंवा कर तलाश करना है
तलाश किसकी है मेरी उदास आँखों को
न जाने कौन सा मंज़र तलाश करना है
तू जिस मक़ाम पे भी है उसे समझ आग़ाज़
मक़ाम और भी बेहतर तलाश करना है
जहां से बे-ख़ुदी मुझको ज़रा सी मिल जाए
अभी तो ऐसा कोई दर तलाश करना है
वो झूमती हुई मुझको सुराहियाँ तो मिलें
वो नाचता हुआ साग़र तलाश करना है
तुम्हारे वास्ते जैसे भटकता हूँ अब मैं
तुम्हें भी कल मुझे खो कर तलाश करना है
मैं तेरे दर को ही अक्सर तलाश करता हूँ
मिरा तो काम तिरा दर तलाश करना है
तुम्हीं हो रास्ता ‘अनमोल’ तुम ही मंज़िल हो
डगर डगर तुम्हें दर-दर तलाश करना है
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ग़ज़ल – हम इस जहाने फ़ानी में दो पल ठहर चले
हम इस जहाने फ़ानी में दो पल ठहर चले
जाने कहां से आए थे जाने किधर चले
मां की दुआएं इस तरह चलती हैं हमकदम
जैसे कि मेरे हमकदम कोई शजर चले
मैं एक रोशनी की किरन हूँ, न जाने क्यों
हर वक्त मेरे साथ ये मिट्टी का घर चले
जीना भी इस जहां में कहां है हुनर से कम
देखें कि अब कहां तलक अपना हुनर चले
अल्फ़ाज़ अपने तौलते हैं मोतियों से हम
जिस जिस को छू लिया उसे नायाब कर चले
’अनमोल’ सच कहें हमे इस राहे इश्क पर
चलना सहल हरगिज़ भी नहीं था मगर चले
रवि कांत अनमोल
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आवाज़ जब भी दो
आवाज़ जब भी दो
रुक कर देख भी लिया करो
जवाब के लिए
एक पल को
शायद
कोई इंतज़ार ही कर रहा हो
जवाब देने के लिए
तुम्हारी आवाज़ का
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दिन निकल आया है
वहां पहाड़ों पर
दिन निकल आया है
लेकिन घाटी में बैठा मैं
अभी उस दिन की
कुछ ही किरणें देख पाया हूँ
दिन की भरपूर रौशनी के लिए
अभी कुछ देर और
इंतज़ार करना है मुझे
फिर भी
मैं इस बात से खुश हूँ
कि पहाड़ों पर ही सही
दिन निकला तो है
ये रौशनी छलकाते पहाड़
बता रहे हैं कि
कुछ देर में
मुझ तक भी पहुँचेगी
दिन की भरपूर रौशनी
क्योंकि पहाड़ों पर
दिन निकल आया है
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तुम हो
हल्की सी धुंध में
शरीर को छूती
पानी की नन्ही बूँदें
अहसास दिलाती हैं मुझे
बाद्लों से घिरे होने का
बादल चाहे न भी दिखते हों
जैसे जीवन की
छोटी-बड़ी मुश्किलों में
अनजान लोगों से
अनजान जगहों पर
अनजान कारणोंं से
बिना माँगे ही मिलने वाली
छोटी सी मदद
या अचानक
बिना कारण ही
मिल जाने वाली
छोटी सी खुशी
अहसास दिलाती है
कि तुम हो
यहीं कहीं आस पास
चाहे मेरी ये नज़र
तुम्हें देख न भी पाए
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ज्ञान की सार्थकता
एक समय ऐसा भी आता है
जब ज्ञान अर्थहीन हो जाता है
स्माप्त हो जाती है उसकी आवश्यक्ता
और साथ ही उसका अहंकार भी
तब ज्ञान भी हो जाता है
अज्ञान की तरह ही
उसके बराबर ही
यही ज्ञान की पराकाष्ठा है
और यही है उसकी सार्थकता भी
जैसे धन की सार्थकता
लोभ के स्माप्त हो जाने में है
और प्रेम की सार्थकता है
मोह के मिट जाने में
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ग़ज़ल
मैं इक भीड़ का हिस्सा हूँ
फिर भी कितना तन्हा हूँ
हँसना पड़ता है सब से
तन्हाई में रोता हूँ
साबुत दिखता हूँ लेकिन
अंदर से मैं टूटा हूँ
चलता फिरता हूँ यूँ हीं
यूँ ही बैठा रहता हूँ
कभी कभी यूँ लगता है
जैसे छोटा बच्चा हूँ
फ़ैल-फ़ैल के सिमट गया
सिमट सिमट के फैला हूँ
कभी रात जैसा हूँ मैं
कभी-कभी सूरज सा हूँ
एक अधूरापन सा है
जाने किसका हिस्सा हूँ
क्या बदलूँ खु़द को अनमोल
जैसा भी हूँ अच्छा हूँ
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ग़ज़ल : यहाँ अब कातिलों को आज़माने कौन आता है
वतन की राह में सर को कटाने कौन आता है
वतन की आबरू देखें बचाने कौन आता है
कफ़न बाँधे हुए सर पर मैं निकला हूँ कि देखूँ तो
बचाने कौन आता है मिटाने कौन आता है
जो पहरेदार थे वो सब के सब हैं लूट में शामिल
जो मालिक हैं उन्हें, देखो जगाने कौन आता है
वतन को बेच कर खुशियाँ खरीदी जा रही हैं अब
वतन के वास्ते अब ग़म उठाने कौन आता है
वतन की ख़ाक का कर्ज़ा चुकाने का है ये मौका
चलो देखें कि ये कर्ज़ा चुकाने कौन आता है
परायों से लुटे अपनों ने लूटा फिर भी ज़िंदा हैं
कि देखें कौन सा दिन अब दिखाने कौन आता है
लिये वो सरफ़रोशी की तमन्ना दिल में ऐ अनमोल
यहाँ अब कातिलों को आज़माने कौन आता है
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ग़ज़ल : हमसे गलती हुई सी लगती है
शाम ढलती हुई सी लगती है
शमअ जलती हुई सी लगती है
रात सपनो की राह पर यारो
अब तो चलती हुई सी लगती है
उनसे तय थी जो मुलाकात अपनी
अब वो टलती हुई सी लगती है
हर तमन्ना न जाने क्यों अब तो
दिल को छलती हुई सी लगती है
हमने दिल खोल कर दिखाया जो
हमसे गलती हुई सी लगती है
जाने क्यों ज़िंदगी हमें अपनी
हाथ मलती हुई सी लगती है
शाम से इक उम्मीद थी दिल में
अब वो फलती हुई सी लगती है
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चलो सो जाएं
अब तो गहरा गई है रात चलो सो जाएं
ख़ाब में होगी मुलाकात चलो सो जाएं
रात के साथ चलो ख़ाब-नगर चलते हैं
साथ तारों की है बारात चलो सो जाएं
रात-दिन एक ही होते हैं ज़ुनूं में लेकिन
अब तो ऐसे नहीं हालात चलो सो जाएं
रात की बात कहेगी जो आँख की लाली
फिर से उट्ठेंगे सवालात चलो सो जाएं
नींद भी आज की दुनिया में बड़ी नेमत है
ख़ाब की जब मिले सौगात चलो सो जाएं
फिर से निकलेगी वही बात अपनी बातों में
फिर बहक जांएंगे जज़्बात चलो सो जाएं
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अध्यापक दिवस के लिए गीत
यह गीत मेरे सभी अध्यापकों को समर्पित है जिनके कारण आज मैं इसे लिख पाया हूँ और इस योग्य बन पाया हूँ कि इसे आप तक पहुँचा सकूँ।
पढ़ना सिखाया, बढ़ना सिखाया, शुक्रिया आपका।
ये जीवन के रस्ते कब आसां थे
हम जाहिल थे, भोले थे, नादां थे
इंसां बनाया, रस्ता दिखाया, शुक्रिया आपका।
हम साज़ों में बंद पड़ी सरगम थे
हम टुकड़े थे धुंधले से ख़ाबों के
हमको सजाया, यूँ गुनगुनाया, शुक्रिया आपका ।
कल हम अपनी मंज़िल जब पाएंगे
दिन ये सारे याद हमें आएंगे
दिल से लगाया, जीना सिखाया, शुक्रिया आपका ।
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ग़ज़ल : ठोकरें खा के, गिर के, संभलता रहा
तम से लड़ता रहा दीप जलता रहा
हर निशाचर की आँखों में खलता रहा
तन बँधा ही सही मन तो आज़ाद था
रात दिन तेरी जानिब ही चलता रहा
जो न होना था होता रहा हर घड़ी
हां जो होना था होने से टलता रहा
हम जहां थे वहीं के वहीं रह गए
वक़्त आगे ही आगे निकलता रहा
सांप बन के डसा है उसी ने हमें
आस्तीं में हमारी जो पलता रहा
मुझको जीना था, हर हाल में जी गया
ठोकरें खा के, गिर के, संभलता रहा
गीली मिट्टी के जैसी थी हस्ती मेरी
उसने जिस रूप ढाला मैं ढलता रहा
ओढ़ कर अपने चेहरे पे चेहरे कई
इक अंधेरा उजाले को छलता रहा
ग़ज़ल : हमारी जात हिन्दी, धर्म है ईमान है हिन्दी
हमारी आन है हिन्दी हमारी शान है हिन्दी
हमारे प्यारे हिन्दोस्तान की पहचान है हिन्दी
हमारी माँ है हिन्दोस्तान की धरती जहाँ वालो
हमारी जात हिन्दी, धर्म है ईमान है हिन्दी
समूचा ज्ञान हमने हिन्दी के कदमों में पाया है
हमारा वेद है हिन्दी हमे कुरआन है हिन्दी
हमें हिन्दोसितां को फिर वही दर्जा दिलाना है
कि हिन्दोस्तान के उत्थान का ऐलान है हिन्दी
सभी भारत की भाषाओं की है हिन्दी बड़ी दीदी
महब्बत से सभी बहनों का रखती ध्यान है हिन्दी
—
रवि कांत ‘अनमोल’
ग़ज़ल :किसी की सोच है बेटे को सिंहासन दिलाना है
उसे मस्जिद बनानी है इसे मंदिर बनाना है
मुझे बस एक चिंता,कैसे अपना घर चलाना है
सियासी लोग सब चालाकियों में हैं बहुत माहिर
इन्हें मालूम है कब शाहर में दंगा कराना है
किसी का ख़ाब है मां-बाप को कुछ काम मिल जाए
किसी की सोच है बेटे को सिंहासन दिलाना है
भले अल्लाह वालों का हो झगड़ा राम वालों से
मगर पंडित का मौलाना का यारो इक घराना है
लड़ाई धर्म पर हो, जात पर हो या कि भाषा पर
लड़ाई हो! सियासत का तो बस अब ये निशाना है
—
रवि कांत ‘अनमोल’
ग़ज़ल:चलें हम साथ मिल कर हाल अपना एक जैसा है
लुटे तुम मौलवी से तो हमें पंडित ने लूटा है
चलें हम साथ मिल कर हाल अपना एक जैसा है
मुहम्मद कृष्ण या जीसस कहां लड़वाते हैं हम को
सभी चरवाहे हैं, पूछो तो किस का किस से झगड़ा है
अज़ल ही से रहे हैं आदमी के सिर्फ़ दो मजहब
जिसे लूटा गया है और इक वो जिस ने लूटा है
ये जन्नत किस तरफ़ है मौलवी से पूछ कर देखो
ये बातें स्वर्ग की बस पादरी, पंडित का धोका है
—
रवि कांत ‘अनमोल’
ग़ज़ल : ‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें
‘अनमोल’ अपने आप से कब तक लड़ा करें
जो हो सके तो अपने भी हक़ में दुआ करें
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
अपने हज़ार चेहरे हैं, सारे हैं दिलनशीं
किसके वफ़ा निभाएं हम किससे जफ़ा करें
नंबर मिलाया फ़ोन पर दीदार कर लिया
मिलना सहल हुआ है तो अक्सर मिला करें
तेरे सिवा तो अपना कोई हमज़ुबां नहीं
तेरे सिवा करें भी तो किस से ग़िला करें
दी है कसम उदास न रहने की तो बता
जब तू न हो तो कैसे हम ये मोजिज़ा करें
—
रवि कांत ‘अनमोल’
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ग़ज़ल : और वो लड़की अकेली रह गई
बिन कहे कोई कहानी कह गई
उसकी आँखों में नमी सी रह गई
बर्फ़ ख़ाबों की जो पिघली ज़िहन में
आँख से कोई नदी सी बह गई
मैं भी तन्हा हो गया हो कर जुदा
और वो लड़की अकेली रह गई
आसमानों ने सितम ढाये बहुत
वो तो धरती थी कि सब कुछ सह गई
फूल डाली पर लगा है झूमने
कान में उसके हवा क्या कह गई
—
रवि कांत ‘अनमोल’
______________________
ग़ज़ल : भला परदेस जा कर क्या करोगे
मेरी दुनिया में आकर क्या करोगे
नए सपने सजा कर क्या करोगे
वफ़ा जब खो चुकी अपने म’आनी
वफ़ा का गीत गाकर क्या करोगे
समेटो ख़ाब जो टूटे हुए हैं
नई दुनिया बसा कर क्या करोगे
तुम्हारे अपने ग़म काफ़ी हैं ऐ दिल
किसी का ग़म उठा कर क्या करोगे
ख़ुद अपने बाजुओं को आज़माओ
किसी को आज़मा कर क्या करोगे
है जब तक़दीर में रोना ही रोना
घड़ी भर मुस्करा कर क्या करोगे
मैं इक खंडहरनुमा सुनसान घर हूँ
मिरे दिल में समा कर क्या करोगे
वो रस्में जिन से तुम उकता चुके हो
वही रस्में निभा कर क्या करोगे
जब अपने घर में ही कुछ कर न पाए
भला परदेस जा कर क्या करोगे
चले आए हो जिस महफ़िल से उठकर
उसी महफ़िल में जाकर क्या करोगे
मसीहा बन के आ़ख़िर क्या मिलेगा
मसीहाई दिखा कर क्या करोगे
यहाँ हर आदमी वादा शिकन है
तुम्हीं वादे निभा कर क्या करोगे
रवि कांत ‘अनमोल’
____________________
ग़ज़ल :अब तक धरती गोल रही है
बाग़ में कोयल बोल रही है
भेद किसी का खोल रही है
मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है
जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है
कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है
मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है
बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है
देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है
तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है
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ग़ज़ल : हमारा मिस्री माखन खो गया है ( श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर )
कहां गाँवों का गोधन खो गया है
हमारा मिस्री माखन खो गया है
दिए जो ख़ाब हमने ऊँचे-ऊँचे
उन्हीं में नन्हा बचपन खो गया है
महब्बत में समझदारी मिला दी
हमारा बावरापन खो गया है
जहा की दौलतें तो मिल गई हैं
कहीं अख़लाक का धन खो गया है
सुरीली बांसुरी की धुन सुनाकर
कहां वो मद-न-मोह-न खो गया है
रवि कांत ‘अनमोल’
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ग़ज़ल : प्यासे हैं हम नदी किनारे क्या कीजे
उनसे मिलते हैं ग़म सारे क्या कीजे
फिर भी वो लगते हैं प्यारे क्या कीजे
सर ढकने को छत मिलती तो अच्छा था
किस्मत में हैं चंद सितारे क्या कीजे
टूटे सपने अंधी आँखों में लेकर
मर जाते हैं लोग बेचारे क्या कीजे
जिन लोगों ने दुनिया की ख़ातिर सोचा
वो फिरते हैं मारे मारे क्या कीजे
या तो वो बहरे हैं जिनको सुनना था
या गूँगे हैं गीत हमारे क्या कीजे
शायर की आँखों में आग न पानी है
प्यासे हैं हम नदी किनारे क्या कीजे
—
रवि कांत ‘अनमोल’
________________________
ग़ज़ल :मेरे अंदर कहीं कुछ टूटता है
मेरा दम मेरे अंदर घुट रहा है
कहाँ है जो दरीचे खोलता है
हमेशा आइनों से झाँकता है
न जाने क्या वो मुझसे चाहता है
वो अपनी हर नज़र से हर अदा से
हज़ारों राज़ मुझपे खोलता है
मैं जितना इस जहाँ को देखता हूँ
मेरे अंदर कहीं कुछ टूटता है
जवाब उनके नहीं मिलते कहीं से
सवाल ऐसे मेरा दिल पूछता है
मैं शायद ख़ुद को खो के तुम को पा लूँ
मगर इतना कहाँ अब हौसला है
मैं पल पल सुन रहा हूँ बात उसकी
मेरे कानों में कोई बोलता है
—
रवि कांत ‘अनमोल’
_________________________________
ग़ज़ल : क्या जगह है? मुझको ले आए कहां?
दो घड़ी इस दिल को बहलाए कहां
आदमी जाए तो अब जाए कहां
सरह्दें ही सरहदें हैं हर तरफ़
क्या जगह है? मुझको ले आए कहां?
झड़ गए पत्ते तो शाख़ें कट गई
अब दरख़्तों में हैं वो साए कहां
आम का वो पेड़ कब का कट चुका
कोयल अब गाए भी तो गाए कहां
खेल कर होली हमारे ख़ून से
पल में खो जाते हैं वो साए कहां
जिनमें कुछ इनसानियत हो, प्यार हो
अब मिलेंगे ऐसे हमसाए कहां
(हमसाए=पड़ोसी)
जिनको गाने के लिए आए थे हम
हमने अब तक गीत वो गाए कहां
—
रवि कांत ‘अनमोल’
_________________________
ग़ज़ल मैत्री दिवस पर
दोस्ती को मात मत कर दोस्ती के नाम पर
इस तरह की बात मत कर दोस्ती के नाम पर
गर भरोसा उठ गया है हाथ मेरा छोड़ दे
तल्ख़ यूं जज़्बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझपे पहले ही ज़माने भर के हैं एहसां बहुत
और एहसानात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझसे कोई बात कर अच्छी बुरी, खोटी ख़री
हाँ मगर कुछ बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मैं बड़ी मुश्क़िल से जीता हूँ दिलों के खेल में
अब ये बाज़ी मात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझको मेरे हाल पर रहने दे ऐ मेरे हबीब
रहम की ख़ैरात मत कर दोस्ती के नाम पर
दोस्ती बदनाम हो जाए न दुनिया में कहीं
ऐसी वैसी बात मत कर दोस्ती के नाम पर
मुझसे रिश्ता तोड़ता है तोड ले तू हाँ मगर
आग की बरसात मत कर दोस्ती के नाम पर
दोस्ती एहसास है एहसास रहने दे इसे
बहस यूं दिन रात मत कर दोस्ती के नाम पर
—
रवि कांत ‘अनमोल’
___________________
ग़ज़ल मैत्री दिवस पर
प्यार की दोस्ती की बात करें
आइए ज़िन्दगी की बात करें
कोई हासिल नहीं है जब इसका
किस लिए दुश्मनी की बात करें
ज़िक्र हो तेरी अक़्लो-दानिश का
मेरी दीवानगी की बात करें
आप नज़दीक जब नहीं तो फिर
किस से हम अपने जी की बात करें
बीती बातों में कुछ नहीं रक्खा
बैठिए हम अभी की बात करें
बात कुछ आपकी हो मेरी हो
और हम क्यूं किसी की बात करें
—
रवि कांत ‘अनमोल’
__________________
गज़ल
डाल से टूट कर जो बिखर जाएँगे
फिर ये पत्ते न जाने किधर जाएँगे
कौन अपना है अब, किसके घर जाएँगे
हम मुसाफ़िर न जाने किघर जाएँगे
हम तो पत्थर हैं क्या अपनी औकात है
तू सँवारेगा तो हम सँवर जाएँगे
है मुकद्दर में भटकन, भटकते हैं हम
होगा तक़दीर में तो ठहर जाएँगे
एक तेरे सिवा और मँज़िल नहीं
लौटना ही पड़ेगा जिधर जाएँगे
मेरी राहें बहुत हैं कठिन देखिए
कौन से मोड़ तक हमसफ़र जाएँगे
वो नकाब अपना उलटेंगे कुछ देर में
वो नज़ारा भी हम देखकर जाएँगे
रवि कांत ‘अनमोल’
___________________
शहीद की माँ से
राह तकती हो रात दिन जिसकी,
वो कभी लौट कर न आएगा
वो तिरा लाडला कभी फिर से,
तेरे पैरों को छू न पाएगा
कर सकेगा न रसभरी बातें,
ला सकेगा न अब वो सौग़ातें
लोग कहते हैं देश की ख़ातिर
जान कुर्बान कर गया है वो
उसने राहे वतन पे हँस हँस के
जान दे दी है मर गया है वो
एसी बातों पे मत यकीं करना
लोग झूटे हैं बात झूटी है
लाल तेरा मरा नहीं अम्मा
वो तिरा लाल मर नहीं सकता
देश के रास्ते पे चलते हुए
देश में लीन हो गया है वो
बन के ख़ुश्बू वतन की मिट्टी की
इन हवाओं में खो गया है वो
देश का इक जवान था पहले
आज कुल देश हो गया है वो
आज से कुल वतन तिरा बेटा
आज से तू वतन की अम्मा है
देश का हर जवान हर बच्चा
तेरा वेटा है तेरा अपना है
रवि कांत ‘अनमोल’
________________________________
नागालैंड की वादियों में
नागालैंड की वादियों में
(अगस्त २००६ में मोकोकचुंग-नागालैंड में लिखी गई कविता)
ये बादल इस तरह उड़ते हैं जैसे
कोई आवारा पंछी उड़ रहा हो।
पहाड़ों की ढलानों से सटे से
हरे पेड़ों की डालों से निकल के
उन उँची चोटियों पर बैठते हैं।
और उसके बाद गोताखोर जैसे
उतर जाते हैं इन गहराइयों में
पहुँच जाते हैं गहरी खाइयों में।
सड़क जो इस पहाड़ी से है लिपटी
कभी हैरत से उसको देखते हैं
कभी सहला के उसको पोंछते हैं
कभी पल भर में कर देते हैं गीला
भिगो देते हैं चलती गाड़ियों को।
ये बादल इस तरह से खेलते हैं
कि जैसे हो कोई बच्चों की टोली
कभी हँसते हैं रो लेते हैं ख़ुद ही
कहाँ परवाह दुनिया की है इनको
जहाँ के रंजो-ग़म से दूर हैं ये,
फ़क़ीरों की तरह हैं मस्तमौला
न जाने किस नशे में चूर हैं ये।
रवि कांत ‘अनमोल’
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सम्मान
मेरा सम्मान मत करना
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ
और इंसान में होती हैं
सौ बुराइयाँ भी
सौ कमज़ोरियाँ भी।
इंसान में होते हैं
सौ अवगुण भी
सौ दोष भी।
इसलिए
मुझे सम्मानित हर्ग़िज़ मत करना
क्योंकि जो हार तुम मुझे पहनाओगे
वही पहन लेंगी मेरी कमज़ोरियाँ भी
जिस आसन पर तुम मुझे बैठाओगे
मेरे साथ उसी पर बैठेंगे
मेरे दोष भी।
और मेरे दोस्त!
आसन पर बैठे हुए दोषों से बुरा
कुछ नहीं होता।
आसन पर बैठे दोष
दोषी बना देते हैं एक युग को।
सिंहासन पर बैठी कमज़ोरियाँ
कमज़ोर बना देती हैं एक पीढ़ी को।
इस लिए मत सम्मान देना मुझे
मेरे दोषों और कमज़ोरियों के साथ।
अगर कोई एकाध अच्छाई
मिल जाए मुझमें
तो सम्मान देना उसे।
मेरा नाम लिए बग़ैर
उसे पहनाना श्रद्धा के हार
और बैठा लेना
ह्रदय के सिंहासन पर
उसे।
मुझे नहीं।
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ
और इंसान में होती हैं
सौ कमज़ोरियाँ भी,
सौ बुराइयाँ भी।
रवि कांत ‘अनमोल’
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पूर्वोत्तर भारत
पूर्वोत्तर भारत (फ़रवरी २००६ में शिलांग में लिखी गई कविता)
ये वादियों में दूर तक फैली हुई झीलें
गाहे-बगाहे इनमें नज़र आती किश्तियाँ
जंगल के बीच बीच में लहराती ये सड़कें
गाहे-बगाहे उनपे आती जाती गाड़ियाँ
सरसब्ज़ पहाड़ों की सियह रंग यह मिट्टी
मिट्टी से खेलते हुए मासूम से बच्चे
ये चाय के बागों में गा के झूमती परियाँ
जंगल में काम करते कबीले के लोगबाग
मिट्टी से सराबोर मिट्टी के दुलारे
बाँसों के झुरमुटों में मचलती ये हवाएँ
हैरत में डालती हुई ये शोख़ घटाएँ
दिल खींच रहे हैं तेरे रंगीन नज़ारे
आकाश से उतरा है जो ये हुस्न ज़मीं पर
जी चाहता है आज कि ऐ बादलों के घर १
ये हुस्न तेरी वादियों का साथ ले चलूँ।
१. मेघालय
रवि कांत ‘अनमोल’
_________________________
कविता
तुम एक कविता ही तो हो
एक सजीव कविता
तुम ही तो कारण हो
मेरे हाथों लिखे जाते इन अक्षरों का
तुम ही तो मेरी आँखों के रास्ते मेरी आत्मा में उतरती हो
और फिर अक्षर बन कर, संगीत बन कर,
आनन्द बन कर और सच्चाई बन कर
फूटती हो मेरी कलम से, मेरे मन से, मेरी जिह्वा से।
तुम्हारा हँसना, रूठना, उठना, बैठना, चलना
तुम्हारा देखना और न देखना
सभी कुछ कविता है संगीत है।
तुम्हारा दीद कविता है, तुम्हारी तलाश कविता है,
तुम्हारा मिलना कविता है, तुम्हारी जुदाई कविता है।
तुम रस की फुहार हो और मैं जन्मों क प्यासा।
तुम्हारा होना भी,तुम्हारा न होना भी
दोनो मेरे दिल को छूते हैं,झकझोरते हैं।
और फिर शब्द पैदा होते हैं
जो तुम्हारे रूप का प्रतिबिंब होते हैं।
लोग इन्हें कविता कहते हैं
लेकिन वास्तविक कविता तो तुम ही हो
और मैं तुम्हारा श्रोता।
रवि कांत ‘अनमोल’
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पत्थर
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो ऐसे बदनसीब होते हैं,
जिन्हें ईश्वर ने, ठोकरें खाने के लिए बनाया है।
कभी हवा, कभी पानी और कभी अपने ही साथियों की
ठोकरें खाते, बेचारे सारी उम्र भटकते रहते हैं
और अंत में उम्र बिता कर रेत हो जाते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो सज़ा काटने आई आत्माएं होते हैं
जिनके लिए ईश्वर ने हर तकलीफ़ का इंतज़ाम किया है
धूप,आँधी,,बारिश,बाढ़, ठोकरें और लानतें
सब कुछ इनके लिए ही होता है।
सभी कुछ झेलते-झेलते बेचारे पत्थर?
अपना पत्थरपन भी अंत में गँवा बैठते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो टूटी फूटी चट्टाने होते हैं।
जो कभी हवा कभी पानी के बहाव में आकर
आपस में टकरा-टकरा कर चूर-चूर होते रहते हैं।
कोई बाहरी ताक़त इन्हें कम ही तोड़ती है।
ये आपस में ही एक दूसरे को तोड़-फोड़ कर
रेत कर लेते हैं।
पत्थर-पत्थर नहीं होते।
ये तो मेरे देश के शोषित-शासित लोग होते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं पता कि जब पत्थर मिल कर रहते हैं
तो चट्टान कहलाते हैं,
और कोई आँधी,कोई तूफ़ान, कोई बारिश या बाढ़
चट्टान का कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
पत्थर जब एक दूसरे की हिफ़ाज़त में खड़े होते हैं
तो वक़्त की चाल धीमी पड़ जाती है।
पत्थर-बेचारे अनजान पत्थर
सिर्फ़ इतना ही जानते हैं
कि पानी या हवा के बहकावे में आकर
आपस में टकराना है।
मूर्तियां बन कर बैठे अपने ही साथियों से
धोखा खाना है।
अंततः आपस में टकरा-टकरा कर रेत हो जाना है।
पत्थर-शायद पत्थर ही होते हैं।
पगले पत्थर।
रवि कांत ‘अनमोल’
___________________
तू और मैं
तेरी ज़ुल्फ़ों की छाँव
अमावस की रात से भी अंधेरी है
लेकिन मेरे दुःखों का अंधेरा
उससे ज़्यादा घना है।
तेरे जिस्म से
फूलों से भी अच्छी सुगंध आती है
लेकिन मुझे रोटी की सुगंघ
उससे भी अच्छी लगती है।
तेरी भावनाओं में
मुझे पता है
बहुत गर्मी है
लेकिन
सर्दी से बजती हुई हड्डियों को
चुप कराने के लिए
वो काफ़ी नहीं है।
रवि कांत ‘अनमोल’
____________________________
क्या लिखूँ?
भाषा भावनाओं को प्रकट करती है
यह पढ़ा था
लेकिन जब भावनाएं
शब्दों में ढलने से इनकार कर दें
और जब शब्द
भवनाओं के हमजोली न हों।
तो तुम ही कहो
मैं क्या कहूँ, क्या लिखूँ?
तुम्हें मैं रोज़ ही एक चिट्ठी लिखता हूँ,
सोच के कागज़ पर
क्लपना की कलम से।
शब्द उसके कुछ धुँधले होते हैं
पर भाव सटीक साफ़।
और रोज़ ही
मुझे तुम्हारा उत्तर मिलता है।
रोज़ ही मैं तुमसे मिलता हूँ
अपनी कहता हूँ
तुम्हारी सुनता हूँ।
लेकिन शब्दों का सहारा लिए बिना।
क्योंकि मेरे लिए
भाव एक चीज़ हैं और शब्द बिल्कुल दूसरी
भाव सूक्ष्म हैं और शब्द स्थूल
भाव निर्मल हैं और शब्द मलिन
भाव ब्रह्म हैं और शब्द संसार
इसलिए भाव कभी शब्दों में नहीं बंधते।
इसीलिए शब्द भावों के हमजोली नहीं होते।
भाव लिखे नहीं जाते और न कहे जाते हैं।
फिर भी
तुम्हारे आग्रह पर ऐ दोस्त
मैं कागज़ कलम लिए बैठा हूँ
अब तुम ही बताओ
मैं क्या कहूँ?
क्या लिखूँ?
रवि कांत ‘अनमोल’
___________________
विरासत
विरासत
(कारगिल हमले के समय
पाकिस्तान के नाम लिखा गया पत्र)
मैने तो दोस्ती का हाथ
तुम्हारी तरफ़ बढाया था।
क्योंकि हम दोनो
केवल पड़ोसी नहीं
भाई नहीं
बल्कि एक ही शरीर के
दो टुकड़े हैं।
चलो, फिर से एक होना
हमारी तक़दीर में न भी सही
पर एक साथ रहना तो
हमारी मजबूरी है।
फिर प्यार मुहब्बत से
क्यों न रहें?
बस यही सोच कर
मैंने दोस्ती का तुम्हारी ओर
बढ़ाया था।
पर तुमने
मेरे हाथ को पकड़ कर
धोखे का खंजर घोंप दिया
मेरी ही बगल में।
पता नहीं
यह तुम्हारी फितरत है,
तुम्हारा पागलपन है,
या किसी और की शह।
लेकिन जो भी हो,
तुम्हारे इस वार का करारा जवाब देना
अब मेरा फ़र्ज़ बन गया है।
ताकि अगली बार
ऐसी हिमाकत करने से पहले
तुम्हें सात बार सोचना पड़े।
ताकि सारी दुनिया जान ले
कि प्यार और दोस्ती
मेरी संस्कृति है, कमज़ोरी नहीं।
शांति यदि मेरी चाहत है
तो वीरता मेरी विरासत है।
सिर्फ़ दरवेश का स्वभाव ही नहीं
मेरे पास सिपाही का हौसला भी है।
प्यार से सभी को
सीने से लगाने वाले बाजुओं में
शत्रु को मसल डालने की ताकत भी है।
यह बात मैं एक बार फिर
सारी दुनिया के सामने साबित कर दूँगा।
और सच मानो
इसके बाद फिर तुम्हारी ओर दोस्ती का हाथ
मैं ज़रूर बढ़ाऊँगा
प्यार का पैग़ाम
फिर आएगा मेरी ओर से
क्योंकि मुझे विरासत में
सिपाही का हौसला ही नहीं
सभी का भला मांगने वाला
दरवेश का दिल भी मिला है।
रवि कांत ‘अनमोल’
_________________
जीवन ढंग
कमियों की बेमौसम बरसात से लड़ते लड़ते
जीवन हारवैस्टर के नीवे से निकल चुके
खेत जैसा हो चुका है।
सिरविहीन अधूरी इच्छाएं, बेमतलब खड़ी हैं।
विचारों का हल च्लाने से पहले
इन्हें जलाना पड़ेगा
और फिर शायद नई दिशाओं का बीज डाल कर
दोबारा, लक्ष्यों की फ़सल उगाई जाएगी।
रवि कांत ‘अनमोल’
_______________________
दैत्य
प्रतीक्षा के दैत्य ने
मेरे जीवन के एक और दिन को
अपने ज़ालिम जबड़ों से
चबा चबा कर खाया
और मैं बेबस सा
इस क्रूरता को देखता रहा-झेलता रहा।
तेरा पैग़ाम फ़रिश्ता बन कर
पता नहीं कब आएगा
और पता नहीं कब
इस दैत्य का अंत होगा।
रवि कांत ‘अनमोल’
________________
प्रश्न
मैं क्या हूँ? क्यों हूँ?
यही प्रश्न अभी तक अनुत्तरित पड़े हैं।
तो क्यों,
तुम्हारे अस्तित्तव का प्रश्न उठाया जाए?
जब मैं स्वयं ही एक प्रश्न हूँ
तो किसी और प्रश्न का उत्तर
क्यों ढूंढता फिरूँ?
अभी तो मुझे
स्वयं का पता लगाना है।
अपनी ही गुत्थियों को
सुलझाना है।
उसके बाद सोचा जाएगा
कि
तुम क्या हो?
हो भी या नहीं?
हो,
तो क्यों हो?
नहीं हो,
तो क्यों नहीं हो?
किन्तु यह सब प्रश्न
अभी क्यों उठाए जाएं?
अभी तो मैं स्वयं ही
एक प्रश्न हूँ।
तुम सा ही कठिन
या तुम से भी कठिन।
और मुझे तलाश है
अपने उत्तर की, तुम्हारे नहीं।
रवि कांत ‘अनमोल’
तांडव
भूख
जब नंगी होकर नाचती है
ज़मीर जल कर राख हो जाता है
और नैतिकता पैरों पर गिर पड़ती है
त्राहि त्राहि कर उठती है
शायद इसी नृत्य को
तांडव कहते हैं
रवि कांत ‘अनमोल’
डैम
अरमानों की एक नदी
मेरे अंदर भी उफ़नती है
लेकिन मजबूरियों का डैम
उसे खुल कर बहने नहीं देता
बाँध लेता है उसे
समझौतों की
असंख्य नहरों में बहाने के लिए
रवि कांत अनमोल
मैं मालिक हूँ
मैं मालिक हूँ
यह मुल्क मेरा है।
ये घर, ये गलियां,
ये खेत, ये क्यारियां,
ये बाग़, बग़ीचे, फुलवारियां,
ये जंगल, पहाड़ मैदान,
ये झरने, नहरें, दरिया,
ये पोखर, कुएं, तालाब,
ये समंदर, सब मेरे हैं ।
ये पुल, सड़कें, डैम
ये इमारतें, दफ़तर मिलें
ये कोठीयां, कारें, बंगले,
ये गाड़ीयां, मोटरें,
ये जहाज़, किश्तियां, बेड़े, सब मेरे हैं ।
मैं ही सब का मालिक हूँ
क्या हुआ जो ये मेरी पहुँच में नहीं हैं ।
क्या हुआ जो मैं इन्हें छू नहीं सकता ।
पर मालिक तो मैं ही हूँ।
ये अलग बात है कि
मेरे पास साइकल भी नहीं,
मैं मोटे टाट से तन ढाँपता हूँ
और रहता हूँ सड़क किनारे, खुले आकाश तले ।
लेकिन ये बढ़िया विदेशी कारें मेरी हैं,
ये शानदार कपड़े की मिलें मेरी हैं,
और ये सजे हुए बंगले भी मेरे ही हैं।
ये अलग बात है कि मैं खाना रोज़ नहीं खाता,
दवाई कभी नहीं
और मरता हूँ सड़क पर, बेइलाज ।
लेकिन ये बड़े-बड़े अनाज गोदाम मेरे हैं,
ये आधुनिक अस्पाताल मेरे हैं।
ये दवाओं के कारखाने भी मेरे ही हैं।
इन सब का मालिक मैं ही हूँ।
मैं
हां मैं ही बादशाह हूँ इस मुल्क का,
सब जानते हैं, मानते हैं, स्वीकारते हैं।
यहाँ तक कि मुल्क के कर्ता-धर्ता भी,
समय-समय पर मुझे सलाम मारते हैं।
हर काम करने से पहले मेरा नाम लेते हैं।
चाहे कोठियां अपने सगों को देनी हों,
चाहे पैट्रोल पंप यारों में बांटने हों,
और चाहे राशन डीपुओं की नीलामी करनी हो,
सब मेरे नाम पर करते हैं
मेरी मुहर तले।
आख़िर मैं मालिक हूँ,
और यह मुल्क मेरा है।
मंत्री से संतरी तक,
ऊपर से नीचे तक,
सब मेरे ख़िदमतगार हैं,
सेवादार ।
वैसे ये सब के सब हुक्म चलाते हैं,
आज्ञा देते हैं, फ़ैसला लेते हैं।
और इनके हुक्म मुझे झेलने पड़ते हैं
इनकी इच्छाएं मुझे नंगे बदन,
बर्दाश्त करनी पड़ती हैं।
इनके विदेशी खाते
मेरे नाम पर कर्ज़ लेकर भरे जाते हैं,
इनकी पार्टियों के लिए अनाज,
मेरी थाली में से निकाला जाता है,
और इनकी महँगी कारों के लिए पैट्रोल
मेरे शरीर में से निचोड़ा जाता है ।
लेकिन फिर भी
मैं मालिक हूँ और ये सब मेरे नौकर।
बड़ी हैरत की बात है, पर हैरान न होइए,
यही तो तलिस्म है।
मेरी अंगुली पर लगने वाली,
दो बूँद स्याही,
मुझे मेरे हक़ से वंचित कर देती है।
दो बूँद स्याही
मालिक को नौकर
और नौकर को मालिक बना देती है
पाँच साल के लिए।
पूरे पाँच साल के लिए
मेरी ताकत मेरे हक़, सब कुछ छीन कर,
उनको दे देती है।
और मैं चिराग़ के जिन्न की तरह
उनका ग़ुलाम हो जाता हूं,
पाँच साल के लिए।
और पाँच साल बाद,
जब अवधि समाप्त होती है,
तब वो फिर सामने खड़े होते हैं
हाथ जोड़े, जादुई स्याही लेकर,
और मैं आज्ञाकारी गुलाम की तरह
फिर अंगुली आगे करता हूँ ।
रवि कांत अनमोल
ख़िरदमंदी मिरी मुझको वफ़ा करने नहीं देती
ये पागल दिल कि मुझको बेवफ़ा होने नहीं देता
मुस्कुराने पर बहुत पाबंदियां तो हैं मगर
यूँ ही थोड़ा मुस्कुराने का इरादा मन में है
ख़ुदा नहीं हूं मगर मैं खुदा से कम भी नहीं
मैं गिर भी सकता हूं गिर कर संभल भी सकता हूं
है मुकद्दर में भटकन, भटकते हैं हम
होगा तक़दीर में तो ठहर जाएँगे
बात कुछ आपकी हो मेरी हो
और हम क्यूं किसी की बात करें
अट गई जब ज़मीन महलों से
दाल चावल कहाँ से लाओगे
ये मेरी सोच का प्यासा परिंदा
तेरी बारिश की बूंदें पी रहा है
मैं जो चलता हूं तो चलता हूं तुम्हारी जानिब
दो क़दम तुम मिरी जानिब कभी आओ तो सही
उसे मस्जिद बनानी है इसे मंदिर बनाना है
मुझे बस एक चिंता, कैसे अपना घर चलाना है
हमारा हौसला देखो, न पूछो पैर के छाले
हमारी इब्तिदा क्या देखते हो इंतिहा पूछो
मंज़िल तक पहुँचाना है जो, मेरे घायल कदमों को
कुछ हिम्मत भी दो चलने की, कुछ रस्ता आसान करो
हम से ख़ता हुई है कि इंसान हैं हम भी
नाराज़ अपने आप से कब तक रहा करें
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कोई ऐसा भी साल दे मौला
कोई ताज़ा ख़्याल दे मौला
दिल से ग़फ़्लत निकाल दे मौला
हर तरफ़ अम्न हो महब्बत हो
कोई ऐसा भी साल दे मौला
शुक्र दे सब्र दे सदाकत दे
चाहे रंजो-मलाल दे मौला
अम्न का रास्ता दिखे सब को
हाथ में वो मशाल दे मौला
उसका चेहरा नज़र में दे हर पल
हिज्र दे या विसाल दे मौला
सारी दुनिया मुझे लगे अपनी
ऐसे सांचे में ढाल दे मौला
रवि कांत ‘अनमोल’
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एक चेहरा भी तो चाहिए रूबरू
इस तरह हो गए वो मिरे रू-ब-रू
हुस्न हो जिस तरह इश्क के रू-ब-रू
दूर ही दूर से बात मत कीजिए
आइए दो घड़ी बैठिए रू-ब-रू
आप ने मुँह जो फ़ेरा तो ये हाल है
ज़िंदगी हो गई मौत के रू-ब-रू
जी रहे हैं तो हम बस इसी आस पर
आ कभी हमको दीदार दे रूबरू
तू ही तू है दिलो जान में हां मगर
एक चेहरा भी तो चाहिए रूबरू
जिसने उनको बनाया है इतना हसीं
काश उसको भी हम देखते रूबरू
मेरी ग़ज़लों के पर्दे में ऐ दोस्तो
रूह मेरी रही आपको रूबरू
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मां की याद आती है
मैं घर से दूर जाता हूँ तो मां की याद आती है
अकेला ख़ुद को पाता हूँ तो मां की याद आती है
यहाँ परदेस में दिन भर मश्क्कत कर थका हारा
मैं जब कमरे में आता हूँ तो मां की याद आती है
ग़मों का सामना करने की हिम्मत मां से पाता हूँ
जो ग़म में डूब जाता हूँ तो मां की याद आती है
गिरो तो उठ के फिर चलना यही मां ने सिखाया है
कभी जब डगमगाता हूँ तो मां की याद आती है
हुनर वो जानती है मुश्किलों पर मुसकुराने का
कभी जब मुस्कुराता हूँ तो मां की याद आती है
अभी तक गूँजती है उसकी लोरी मेरे कानों में
मैं जब भी गुनगुनाता हूँ तो मां की याद आती है
मिरी हर जीत मेरी हर खुशी मां की दुआ से है
मैं जब खुशियां मनाता हूँ तो मां की याद आती है
ये शीरीं लफ़्ज़ ये जुमले मेरी मां ने मुझे बख्शे
ग़ज़ल तुमको सुनाता हूँ तो मां की याद आती है
Some Line Said By Ravikant Anmol About Himself And His Poetry
मेरी आज़ाद नज़्में
आज़ाद नज़्म, छन्दबद्ध अथवा पाबन्द नज़्म से इन अर्थों में अलग है कि इसमें हमारे भाव बहुत तेज़ी से उफ़न कर बाहर आते हैं और हमें इतना समय ही नहीं देते कि हम छन्द के बारे में कुछ सोच पाएं,बह्र को समझ पाएं। इस तरह आज़ाद नज़्म बहुधा अधिक प्राकृतिक और अधिक भावपूर्ण रहती है, लेकिन इससे बह्र और छन्द का महत्व समाप्त नहीं होता। बह्र और छन्द का अभ्यास होने से हमारे विचार लयबद्ध रूप में ही निकलते हैं और यदि कभी भावों का प्रवाह स्वछ्न्द रूप से भी होता है तब भी लयात्मक्ता अपने आप उनमें आ जाती है और आज़ाद नज़्म में भी एक तरह की लय आ जाती है। लय ही तो है जो कविता को कविता बनाती है। बहुत अधिक अभ्यासी हो जाने पर कवि छन्दसिद्ध हो जाता है और फिर वह जो भी कहता है स्वभाविक रूप से छन्दबद्ध होकर ही उसकी ज़ुबान से निकलता है, कवि के लिए यह आदर्श स्थिति है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, नज़ीर अकबराबादी और मिर्ज़ा ग़ालिब इत्यादि कई कवियों के साथ ऐसा ही था। वे किसी भी विषय पर किसी भी समय आशुकविता करने की योग्यता रखते थे। भाव उनकी ज़ुबान पर आते ही छन्दबद्ध हो जाते थे। ऐसी स्थिति प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नहीं है- आज के व्यस्तता भरे समय में तो बिल्कुल भी नहीं। ऐसे में मेरे जैसे कम अभ्यास वाले लोगों के मन में जो तीव्र भाव आते हैं, यदि उन्हें छन्द में ढालने के लिए थोड़ा रुकना पड़े तो उनकी तीव्रता में कमी आने की संभावना रहती है। जब ऐसी स्थिति हो तो मुक्त छन्द कविता लिखना या आज़ाद नज़्म कहना भी वाजिब ही है। वैसे छन्द का अभ्यास भी करते रहना चाहिए जिससे विचार छन्द में न सही, कम से कम लय में तो निकलें ही।