Poems By Gulzar
Hindi Poems By Gulzar on Nature
प्रकृति पर ये कविताएँ गुलज़ार की गीतात्मक और प्रकृति के प्रति उनके कई शानदार पहलुओं के प्रति संवेदनशील श्रद्धांजलि हैं।
यह प्यार, दुःख, खुशी, मानवीय रिश्तों, सामान्य और असाधारण और दैनिक और बिना किसी कारण के जीवन के असामान्य और अक्सर उल्लेखनीय minutiae को शामिल करता है।
वास्तव में उनकी काव्यात्मक दृष्टि से कुछ भी नही बच पIता है। इस व्यापक कैनवास के हिस्से के रूप में, प्रकृति उनकी निरंतर जुनून बनी हुई है.
यह प्यार, दुःख, खुशी, मानवीय रिश्तों, सामान्य और असाधारण और दैनिक और बिना किसी कारण के जीवन के असामान्य और अक्सर उल्लेखनीय minutiae को शामिल करता है।
वास्तव में उनकी काव्यात्मक दृष्टि से कुछ भी नही बच पIता है। इस व्यापक कैनवास के हिस्से के रूप में, प्रकृति उनकी निरंतर जुनून बनी हुई है.
प्रकृति के बारे में लिखने में, गुलज़ार इसे खुद का व्यक्तित्व देते हैं। वह इसके बारे में इतना नहीं लिखते जितना वह इसके माध्यम से लिखते है, इस प्रक्रिया में वह एक पर्यवेक्षक और एक प्रतिभागी होता है, जो उसके सुख–दुख में शामिल होता है।
उनके लिए, एक नदी या एक बादल या एक पहाड़, एक पेड़ या एक पत्ती या आकाश और उससे परे ब्रह्मांड अवलोकन की वस्तु नहीं है, बल्कि जीवित, आत्मा और उद्देश्य के साथ चेतन प्राणी है।
वह तब उनके साथ संवाद में, हास्य और पाथोस और विडंबनाओं और महान सौंदर्य को अपनी रचनाओं में मिलाते हैं।
💖 बहता रहता है दरिया। 💖
मुंह ही मुंह कुछ बुडबुड़ करता, बहता रहता है दरिया
छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में . . .
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है,
पुल पर चढ़के बहने की ख्वाहिश है दिलमें।
जाड़ों में जब कोहरा उसके पूरे मुंह पर आ जाता है
और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है
एक दफा तो वो भी उसके साथ उड़े
और जंगल से गायब हो जाए!
कभी कभी यूंभी होता है
पुल से रेलगुजरती है तो बहता दरिया, पल की पल बस रुकजाता है
इतनी सी उम्मीद लिए . . .
शायद फिर से देखसकेवो, इक दिनउस लड़की का चेहरा,
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना वर मांगा था. . .
उस लड़की की सूरत उसने,
अक्स उतारा था जब से, तह मेंरख ली थी।!
💖 सितंबर 💖
सितंबर के दिनों में . . .
आसमां हर साल ही बीमार रहता है
एलर्जी है कोई शायद . . .
सितंबर आते ही बारिश का पानी सूखने लगता है और
बादल के टुकड़े, मैले गंदे पोतडों
जैसे पडे रहते हैं, रूखी, चिड़चिडी सी धूप में दिन भर . . .
छपाकी सी निकल आती है, शाम होते ही सारी पीठ पर
और लाल हो जाता है इक हिस्सा फलक का जैसे जहरीले किसी बिच्छू ने काटा हो।
कई दिन खांसता है आसमां और लाल, काली आंधी चलती है
बहुत बीमार रहता है सितंबर के दिनों में आसमां मेरा!
💖 मनाली 💖
बड़ी मासूम लगती थी . . .
पतंगों की तरह उड़ती हुई जब बर्फ उतरी थी
परिंदे हैरां हैरां से
जरा सी चोंच खोले देखते थे,
न पर, न आंख, न मुंह है
भला कैसे पतिंगे हैं
पकड़ लो तो हवा की एक गीली बूंद है, जो मुंह में आती है।
बड़ी चुपचाप लेकिन रात भर गिरती रही वो बर्फ वादी में…
न बारिश की तरह गरजी,
न दरवाज़ा किसी का खटखटाया, न किसी खिड़की पे दस्तक दी . . .
किसी की नींद पर पांव नहीं रखा,
किसी ख़ामोशी पर आहट नहीं फेंकी,
वो सारी रात बरसी थी . . .!
बड़ी पोली सी सुबह थी
फलों की टोकरी से बर्फ पर लुढ़कते हुए बच्चे,
तमाशे कर रहे थे,
कोई खिड़की कहीं देखो, वो आबी रंग में क्रिसमस का ग्रीटिंग
कार्ड लगती थी
बेचारी खुष्क शाखरों ने तो अपनी उंगलियों पर
पटटयां सी बांध लीं रूई के कपड़े की . . .
💖 एक नदी की बात सुनी . . . 💖
एक नदी की बात सुनी
इक शायर से पूछ रही थी
रोज किनारे दोनों हाथ पकड़ के मेरे
सीधी राह चलाते हैं
रोज ही तो मैं
नाव भर कर, पीठ पे लेकर
कितने लोग हैं पार उतार के आती हूं
रोज़ मेरे सीने पे लहरें
नाबालिग बच्चों के जैसे
कुछ कुछ लिखती रहती हैं
क्या ऐसा हो सकता है जब
कुछ भी न हो
कुछ भी नहीं . . .
और मैं अपनी तेह से पीठ लगा के इक शब रुकी रहूं
बस ठहरी रहूं
जैसे कविता कह लेने के बाद पड़ी रह जाती है
में पड़ी रहूं . . .!
💖 पतझड़ में जब पत्ते गिरने लगते हैं . . . 💖
पतझड़ में जब पत्ते गिरने लगते हैं
क्या कहते होंगे शाखों से?
हम तो अपना मौसम जी कर जाते हैं
तुम खुश रहना–
तुम को तो हर मौसम की औलादें पाल के
रुख्सत करनी होंगी
शाख़ की बारी आई थी जब कटने की
तो पेड़ से बोली . .. खुद बोली थी
तुमको मेरी उम्र लगे . . .
तुम को तो बढ़ना है, और ऊंचा होना है
दूसरी आ जाएगी, मुझ को याद न रखना।
पेड़ जमीं से क्या कहता, जब खोद खोद कर
उस की जड़ों के टांके तोड़े
और जमीं से अलग किया।
उलटा जमीं को कहना पड़ा . . .
याद है इक छोटे से बीज से तुमने
झांक के देखा था जब पहली पत्ती आई थी।
फिर आना, और मेरी कोख से पैदा होना,
गर मैं बची रही।!
💖 मोड़ पे देखा है 💖
मोड़ पे देखा है वो पेड–सा इक पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से मैं उसे जानता हूं
जब में छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख़् से जा पांव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उसपर
मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने
और जब हामला थी बीबा‘ तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ कैरियां फेंकी थीं उसी ने
वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती ‘बीबा
‘हां, उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है‘
अब भी जल जाता हूं, जब मोड़ गुज़रते में कभी
खांस कर कहता है, क्यूं, सर के सभी बाल गए?
सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको।
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