MUFTI SADR-UDDIN AZURDA POETRY
MUFTI SADR-UDDIN AZURDA
- पिला साक़िया मय-ख़ुनुक आब में
Mufti Sadr-Uddin Azurda Poetry |
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पिला साक़िया मय-ख़ुनुक आब में
कि थमती नहीं तौबा महताब में
गया दीन कैसा हुज़ूर-ए-नमाज़
वो याद आए अबरू जो मेहराब में
मिले कुछ तो ज़ख़्म-ए-जिगर का मज़ा
बुझा कर रखा तेग़ ज़हराब में
इलाही फ़लक जिस से फट जाए दे
वो तासीर आह-ए-जिगर-ताब में
बुलंद आशियानों पे बिजली गिरी
जो नीचे थे डूबे वो सैलाब में
वो उर्यां में सरमा में थी जिन की शब
गुज़रती समोर और संजाब में
न आए हों आज़ुर्दा लेना ख़बर
पड़ी धूम ये सारे पंजाब में
- मुझ सा भी कोई इश्क़ में है बद-गुमाँ नहीं
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मुझ सा भी कोई इश्क़ में है बद-गुमाँ नहीं
क्या रश्क देख कर मुझे रंग-ए-ख़िज़ाँ नहीं
आँखों से देख कर तुझे सब मानना पड़ा
कहते थे जो हमेशा चुनें है चुनाँ नहीं
उठ कर सहर को सजदा-ए-मस्ताना के सिवा
ताअ’त क़ुबूल ख़ातिर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं
अफ़्सुर्दा दिल हो दर दर-ए-रहमत नहीं है बंद
किस दिन खुला हुआ दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं
ऐ जज़्ब-ए-शौक़ रहम कि मद्द-ए-नज़र है यार
जा सकती वाँ तलक निगह-ए-ना-तवाँ नहीं
शब उस को हाल-ए-दिल ने जताया कुछ इस तरह
हैं लब तो क्या निगह भी हुई तर्जुमाँ नहीं
कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़
शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं
अच्छा हुई निकल गई आह-ए-हज़ीं के साथ
इक क़हर थी बला थी क़यामत थी जाँ नहीं
जाने है दिल फ़लक का मिरी सख़्त-जानियाँ
उन ना-तावनियों को पहुँचती तवाँ नहीं
कहता हूँ उस से कुछ मैं निकलता है मुँह से कुछ
कहने को यूँ तो हैगी ज़बाँ और ज़बाँ नहीं
महका हुआ है बैत-ए-हुज़न देखना कोई
आया नसीम-ए-मिस्र का हो कारवाँ नहीं
लब बंद हूँ तो रौज़न-ए-सीना को क्या करूँ
थमता तो मुझ से नाला-ए-आतिश-इनाँ नहीं
क्या कुछ न कर दिखाऊँ पर इक दिन के वास्ते
मिलता भी हम को मंसब-ए-हफ़्त-आसमाँ नहीं
वो शाख़-ए-नख़्ल-ए-ख़ुश्क हूँ में कुंज-ए-बाग़ में
देखे है भूल कर भी जिसे बाग़बाँ नहीं
बे-वक़्त आए दैर में क्या शोरिशें करें
हम पीर-ओ-पीर-ए-मय-कदा भी नौजवाँ नहीं
‘आज़ुर्दा’ ने पढ़ी ग़ज़ल इक मय-कदे में कल
वो साफ़-तर कि सीना-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं
- शब जोश-ए-गिर्या था मुझे याद शराब में
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शब जोश-ए-गिर्या था मुझे याद शराब में
था ग़र्क़ मैं तसव्वुर-ए-आतिश से आब में
यारब वो ख़्वाब-ए-हक़ में मिरे ख़्वाब मर्ग हो
आवे वो मस्त-ए-ख़्वाब अगर मेरे ख़्वाब में
यारब ये किस ने चेहरे से उल्टा नक़ाब जो
सौ रख़्ने अब निकलने लगे आफ़्ताब में
क्या अक़्ल मोहतसिब की कि लाया है खींच कर
सौदा-ज़दों को महकमा-ए-एहतिसाब में
हम जान-ओ-दिल को दे चुके मौहूम उमीद पर
अब हो सो हो डुबो दे ये कश्ती शराब में
कुछ भी लगी न रक्खी डुबो दी रही सही
दिल को न डालना था सवाल-ओ-जवाब में
उल्फ़त में उन की अब तो है जानों की पड़ गई
दिल किस शुमार में है जिगर किस हिसाब में
थे जुस्तुजू में रोज़-ए-अज़ल जा-ए-दर्द की
आया पसंद दिल मिरा इस इंतिख़ाब में
- है मुफ़्त दिल की क़ीमत अगर इक नज़र मिले
है मुफ़्त दिल की क़ीमत अगर इक नज़र मिले
ये वो मताअ’ है कि न लें मुफ़्त अगर मिले
इंसाफ़ कर कि लाऊँ मैं फिर कौन सा वो दिन
महशर के रोज़ भी न जो दाद-ए-जिगर मिले
परवाना-वार है हद-ए-पर्वाज़ शो’ला तक
जलने ही के लिए मुझे ये बाल-ओ-पर मिले
आने से ख़त के जाते रहे वो बिगाड़ सब
बन आई अब तो हज़रत-ए-दिल लो ख़िज़्र मिले
क्या शुक्र का मक़ाम है मरने की जाहे दिल
कुछ मुज़्तरिब से आज वो बैरून-ए-दर मिले
आलम ख़राब है न निकलने से आप के
निकलो तो देखो ख़ाक में क्या घर के घर मिले
है शाम-ए-हिज्र आज ओ ज़ालिम ओ फ़लक
गर्दिश वो कर कि शाम से आ कर सहर मिले
गो पास हो प चैन तो है इस बिगाड़ में
क्या लुत्फ़ था लड़े वो इधर और उधर मिले
दिल ने मिला दीं ख़ाक में सब वज़्अ-दारियां
जूँ जूँ रुके वो मिलने से हम बेशतर मिले
टूटे ये बख़िया ज़ख़्म का हमदम कहीं से ला
ख़ंजर मिले कटार मिले नेश्तर मिले
था अस्ल मैं मुराद डुबोना जहान का
क़ाबिल समझ के गोया हमें चश्म-ए-तर मिले
उस की गली में ले गए ‘आज़ुर्दा’ को इसे
दी थी दुआ ये किस ने कि जन्नत में घर मिले
- आँख उठाई नहीं वो सामने सौ बार हुए
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आँख उठाई नहीं वो सामने सौ बार हुए
हिज्र में ऐसे फ़रामुश-गर-ए-दीदार हुए
कामिल उस फ़िरक़ा-ए-ज़ुहहाद में उठा न कोई
कुछ हुए तो यही रिन्दान-ए-क़दह ख़्वार हुए
न उठी बैठ के ख़ाक अपनी तिरे कूचे में
हम न याँ दोश-ए-हवा के भी कभी यार हुए
सुब्ह ले आइना उस बुत को दिखाया हम ने
रात अग़्यार से मिलने के जो इंकार हुए
कुछ तअ’ज्जुब नहीं गर अब के फ़लक टूट पड़े
आज नाले जो कोई और भी दो-चार हुए
मिस्र में आज तुझे देख के पछताए हैं
सादा-लौही से जो यूसुफ़ के ख़रीदार हुए
मुब्तज़िल मैं ही तो हूँ आप जो कहिए सच है
रात झगड़े तो मुझी पर सर-ए-बाज़ार हुए
ये हैं ‘आज़ुर्दा’ जो कहते हुए शैअन-अल्लाह
आज दरयूज़ा-गर-ए-ख़ाना-ए-ख़ुम्मार हुए
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- निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
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निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
ये इक आह है इस का पैकाँ नहीं
ये हाथ उस के दामन तलक पहुँचे कब
रसाई जिसे ता-गरेबाँ नहीं
फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे से तौर
कि अपने किए से पशेमाँ नहीं
मिरा नामा-ए-शौक़ तलवों तले
न मलिए ये ख़ून-ए-शहीदाँ नहीं
उसी की सी कहने लगे अहल-ए-हश्र
कहीं पुर्सिश-ए-दाद-ख़्वाहाँ नहीं
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- क्या जानो जो असर है दम-ए-शो’ला-ताब में
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क्या जानो जो असर है दम-ए-शो’ला-ताब में
ये वो है बर्क़ आग लगा दे नक़ाब में
हाल इस निगह का उस के सरापे में क्या कहूँ
मोर-ए-ज़ईफ़ फँस गई जा शहद-ए-नाब में
ज़िक्र-ए-वफ़ा वो सुनते ही मज्लिस से उठ गए
कुछ गुफ़्तुगू ही ठीक न थी ऐसे बाब में
क्या पूछते हो चारा-ए-हू अज़-ख़्वेश-ए-रफ़्तगाँ
सो जा से चाक जामा है सोज़न ख़ुल्लाब में
आवाज़-ए-सूर तेरे शहीदों को रोज़-ए-हश्र
लगती थी इक भनक सी तो कानों को ख़्वाब में
जो देखते ही उस से ये गुज़रा कभू नहीं
याक़ूब के ख़याल ओ ज़ुलेख़ा के ख़्वाब में
हर हर रोएँ से ख़िर्क़ा के मेरे है ख़ूँ-चकाँ
ग़ोते तो सौ दिए उसे ज़मज़म के आब में
इस चश्म-ए-अश्क-बार के क्यूँकर हो सामने
रोने का माद्दा ही नहीं है सहाब में
क़िस्मत तो देख खोली गिरह कुछ तो रह गए
नाख़ुन हमारे टूट के बंद-ए-नक़ाब में
हर-वक़्त आरज़ू-ए-अज़ाब-ए-जहीम है
हाथों से हिज्र के हूँ मैं क्या क्या अज़ाब में
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- नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
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नालों से मेरे कब तह-ओ-बाला जहाँ नहीं
कब आसमाँ ज़मीन-ओ-ज़मीं आसमाँ नहीं
क़ातिल की चश्म-ए-तर न हो ये ज़ब्त-ए-आह देख
जूँ शम्अ’ सर कटे पे उठा याँ धुआँ नहीं
ऐ बुलबुलान-ए-शो’ला-दम इक नाला और भी
गुम-कर्दा-राह-ए-बाग़ हूँ याद आशियाँ नहीं
इस बज़्म में नहीं कोई आगाह वर्ना कब
वाँ ख़ंदा ज़ेर-ए-लब उधर अश्क-ए-निहाँ नहीं
ऐ दिल तमाम नफ़अ’ है सौदा-ए-इश्क़ में
इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं
नाज़-ओ-निगह रविश सभी लागू हैं जान के
है कौन अदा वो तेरी कि जो जाँ-सिताँ नहीं
मिलना तिरा ये ग़ैर से हो बहर-ए-मस्लहत
हम को तो सादगी से तिरी ये गुमाँ नहीं
आज़ुर्दा तक भी कुछ न है उस के रू-ब-रू
माना कि आप सा कोई जादू-बयाँ नहीं
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- काश मक़्बूल हो दुआ-ए-अदू
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काश मक़्बूल हो दुआ-ए-अदू
क्या करूँ वो भी मुस्तजाब नहीं
अब तो उस चश्म-ए-तर का चर्चा है
ज़िक्र-ए-दरिया नहीं सहाब नहीं
जम्अ’ तूफ़ान-ओ-चश्म-ए-तर मसरफ़
अब मसारिफ़ का कुछ हिसाब नहीं
धो दिया सब को दीदा-ए-तर ने
वो नहीं दर्स वो किताब नहीं
इश्क़-बाज़ी का मुँह चिड़ाना है
और वो मौसम नहीं शबाब नहीं
तेरी आँखों के दौर में क्या क्या
सेहर रुस्वा नहीं ख़राब नहीं
मुख़्तसर हाल-ए-चश्म-ओ-दिल ये है
उस को आराम उस को ख़्वाब नहीं
जो सरापा-ए-यार ‘आज़ुर्दा’
तेरे दीवाँ का इंतिख़ाब नहीं
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- इक बात पर बिगड़े गए न जो उम्र-भर मिले
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इक बात पर बिगड़े गए न जो उम्र-भर मिले
उस से तरीक़ सुल्ह के क्या सुल्ह-गर मिले
बाहम सुलूक था प तिरे दौर-ए-हुस्न में
ये रस्म उठ गई कि बशर से बशर मिले
दिल महव-ए-चश्म-ए-यार था बीमार हो गया
कुछ उन परस्तिशों का भी आख़िर समर मिले
ऐ नाला तू ने साथ दिया आह का तो क्या
उम्मीद क्या असर की जो दू बे-असर मिले
सदमा जिगर पे पहुँचे तो हो दिल में क्यूँ न दर्द
क्या फ़र्क़ कुछ जुदा नहीं हैं दिल जिगर मिले
हम को हमारे ताले-ए-बद ने डुबो दिया
अच्छे थे गर नसीब तो क्यूँ चश्म-ए-तर मिले
धोऊँ सद-आब-ए-तेग़ से ऐ पम्बा जो कभू
दामन से तेरे दामन दाग़-ए-जिगर मिले
उम्मीद-ए-बू में उस की मिले यूँ सबा से हम
जिस तरह बे-ख़बर से कोई बे-ख़बर मिले
जो कुछ न देखना था सो वो देखना पड़ा
उस बेवफ़ा से पहले थे क्या देख कर मिले
देखे हुनर जो अपने ही वो जाने उस का काम
हम को तो ऐब देख के अपने हुनर मिले
मेहर-ए-जहाँ-फरोज़ दिखा दूँ जबीं को मैं
गर संग-ए-आस्ताना-ए-ख़ैरुल-बशर मिले
मिलने से उस की घटती है क्या तेरी शान-ए-हुस्न
‘आज़ुर्दा’ ख़स्ता-जाँ भी मिले तू अगर मिले
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