Faiz Ahmad Faiz
Shayari and ghazals by Faiz Ahmad Faiz
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाखों
में लाख मशअल–बकफ़ सितारों
के कारवां, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चन्द लम्हों के ज़ार्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चन्द क़तरे, तेरी जबीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं
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faiz ahmad faiz two line shayari
बहुत सियह है यह रात लेकिन
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वह नहरे–ख़ूं जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वह मौजे–ज़र जो तेरी नज़र है
वह ग़म जो इस वक्त तेरी बांहों
के गुलसितो‘ में सुलग रहा है
(वह ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शास्त्र की कर्मों से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है
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अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क” का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क्रातिल दुखों के तीशे
क़तार अन्दर क़तार किरनों
के आतशी हार बन गए हैं
यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक्कीं बना है
यक्रीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है
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faiz ahmad faiz shayari
जब तेरी समुन्दर आँखों में
यह धूप किनारा शाम ढले
मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर को अमर, पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे, पल दो पल
होंटों की लपक बाँहों की छनक
यह मेल हमारा झूट न सच
क्यों राज़ करो, क्यों दोष धरो
किस कारन झूटी बात करो
जब तेरी समुन्दर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर दर वाले
और राही अपनी रह लेगा
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faiz ahmad faiz two line shayari
क्या करें
मेरी तेरी निगाह में
जो लाख इन्तेज़ार हैं
जो मेरे तेरे तन बदन में
लाख दिलफ़िगार हैं
जो मेरी तेरी उँगलियों की बेहिसी से
सब क़लम नज़ार हैं
जो मेरे तेरे शहर में
हर इक गली में
मेरे तेरे नक्शेपा के वेनिशां मज़ार हैं
जो मेरी तेरी रात के
सितारे ज़्म जख्म हैं
जो मेरी तेरी सुबह के
गुलाब चाक चाक हैं
यह ज़ख़्म सारे बेदवा
यह चाक सारे बे रफ़ू
किसी पे राख चाँद की
किसी पे ओस की लहू
यह है भी या नहीं बता
यह है कि महज़ जाल है
मेरे तुम्हारे अन्कबूते–वहम का बुना हुआ
जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता
बता, बता
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निसार मैं तेरी गलियों के, ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला, तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म–ओ–जाँ बचा के चले
है अहले–दिल के लिए अब ये नज़्मे–बस्तो कुशाद
कि संग–ओ–ख़िश्त मुक़ैयद हैं और सग आज़ाद
बहुत है जुल्म के दस्ते बहाना–जू के लिए
जो चन्द अहले–जुनू तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहले–हवस मुहई भी, मुन्सिफ़ भी
किसे वकील करें किससे मुन्सफ़ी चाहें
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुजरते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूं सुबह–ओ–शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने ज़िन्दां तो दिल यह समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
गरज तसवब्वरे शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्ते-सायाए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझ से जुदा हैं तो कल बहम होंगे
यह रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज ओऔज)? पे है तालये रक्नीब तो क्या
यह चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अहदे-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे -गर्दि शे -लैल-ओ-निहार रखते है
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(जो अम्न और आज़ादी की जद्द-ओ-जेहद में काम आए)
यह कौन सख़ी हैं
जिनके लहू की
अशर्फ़ियाँ, छन छन, छन छन
धरती की पैहमः प्यासी
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती जाती हैं
यह कौन जवाँ हैं अरज़े-अजम!
यह लख लुट
जिनके जिस्मों की
भरपूर जवानी का कुन्दन
यूँ ख़ाक में रेज़ा-रेज़ाः है
यूँ कूचा कूचा बिखरा है
ऐ अरज़े अजम! ऐ अरज़े-अजम
क्यूं नोच के हँस हँस फेंक दिए
इन आँखों ने अपने नीलम
इन होंटों ने अपने मरजाँ
इन हाथों की बेकल चाँदी
किस काम आई, किस हाथ लगी
ऐ पूछने वाले परदेसी!
यह तिफ़्ल-ओ-जवाँ
उस नूर के नौरस मोती हैं
उस आग की कच्ची कलियाँ हैं
जिस मीठे नूर और कड़वी आग
से जुल्म की अन्धी रात में फूटा
सुबहे-बगावत का गुलशन
और सुबह हुई मन मन, तन तन
उन जिस्मों का सोना-चाँदी
उन चेहरों के नीलम, मरजोँ
जगमग जगमग, रख्शां रख्शां’
जो देखना चाहे परदेसी
पास आए देखे जी भर कर
यह ज़ीस्तः की रानी का झूमर
यह अमन की देवी का कंगन
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हम जो तारीक राहों में मारे गए
(ईंथल और जूलियस रोज़न्बर्ग के ख़ुतूत से मुतास्सिर होकर)
तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम
दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शम्ओं की हसरत’ में हम
नीमतारीक” राहों में मारे गए
सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे होंटों की लाली लपकती रही
तेरी जुल्फ़ों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चाँदी चमकती रही
जब धुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहाँ तक क़दम
लब पे हफ़ें-गज़ल, दिल में क़ंदीले-ग्रम
अपना ग़म था गवाही तेरे हुस्न की
देख कायम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
नारसाई अगर अपनी तक़दीर थी
तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी
किसको शिकवा है गो शौक़ के सिलसिले
हिज़ की क़त्लगाहों से सब जा मिले
क़त्ल गाहों से चुन कर हमारे अलम
और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले
जिन की राहे तलब से हमारे क़दम
मुख़्सर कर चले दर्द के फ़ासिले
कर चले जिन की ख़ातिर जहाँगीर हम
जां गैँवा कर तेरी दिलबरी का भरम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
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Faiz Ahmed Faiz poems
ऐ रोशनियों के शहर
सब्जा सब्जा सूख रही हैं फीकी, ज़र्द दोपहर
दीवारों को चाट रहा है तनन्हाई का जहर
दूर उफुक्र’ तक घटती बढ़ती, उठती गिरती रहती है
कोहर की सूरत बेरौनक़ दर्दों की गदली लहर
बसता है इस कोहर के पीछे रोशनियों का शहर
ऐ रोशनियों के शहर
कौन कहे किस सम्तः है तेरी रोशनियों की राह
हर जानिब बेनूर खड़ी है हिज़ की शहर पनाह
धक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की माँद सिपाह
आज मेरा दिल फ़िक्र में है
ऐ रोशनियों के शहर
शब ख़ूं से मुँह फेर न जाये अरमानों की रौ
स्तर हो तेरी लैलाओं की, उन सब से कह दो
आज की शब जब दिए जलाएँ ऊँची रखें लौ
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Faiz Ahmed Faiz Ghazal
यहाँ से शहर को देखो
यहाँ से शहर को देखो तो हल्क़ा दर हल्का
खिंची है जेल की सूरत हर एक सम्त फ़सील
हर एक राह गुज़र? गर्दिशे-असीरां है
न संगेमील न मन्ज़िल, न मुखलिसी की सबील’
जो कोई तेज़ चले रह तो पूछता है ख्याल
कि टोकने कोई ललकार क्यों नहीं आई
जो कोई हाथ हिलाए तो वहम् को है सवाल
कोई छनक, कोई झंकार क्यों नहीं आई
यहाँ से शहर को देखो तो सारी ख़िल्क़त में
न कोई साहिबे-तम्की, न कोई वालिये-होश
हर एक मर्दे जवाँ, मुज्रिमे-रसन-बगुलू!!
हर इक हसीनये-राना, कनीज़’ हल्क़ा बगोश
जो साये दूर चराग्रो के गिर्द लरज़ाँ हैं
न जाने महफ़िले गम है कि बज़्मेजाम-ओ-सुबू
जो रंग हर दर-ओ-दीवार पर परीशां हैं
यहाँ से कुछ नहीं खुलता यह फूल हैं कि लहू।
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हम कि ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
अब बज़्मे-सुख़न सोहबते-लब सोख्तागां है
बेज़ार फ़ज़ा दरपये-आज़ार सबा है
मौत अपनी न अमल अपना, न जीना अपना
सच है, हमीं को आपके शिकवे बजा न थे
दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
शहर के चाक गिरेबाँ हुए नापैद अब के
हर सम्त परीशौं तेरी आमद के क़रीने
रंग पैराहन का, खुश्बू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम
यह मीसमे गुल गर चे तरब ख़ेज बहुत है
कर्जे निगाहे यार अदा कर चुके हैं हम
वफ़ाये-वादा नहीं वादये-दिगर भी नहीं
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारये शाम
कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
जमेगी कैसे बिसाते-यारॉ कि शीशा-ओ-जाम बुझ गए हैं
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
न गँवाओ नावके-नीम कश दिले-रेज़ारेज़ा गंवा दिया
जैसे हमबज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम
हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़े सफ़र जाएँगे
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हम कि ठहरे अजनबी इतनी मदारातों! के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नजर आएगी बेदाग सब्जे की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बेदर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे मेहर सुबहें, मेहरबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा, पर शिकस्ते-दिल ने मुहलत ही न दी
कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों के बाद
उन से जो कहने गए थे फ़ैज़ जाँ सदक़ा किए
अनकही ही रह गई वह बात सब बातों के बाद
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